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Saturday, June 20, 2020

June 20, 2020

18TH CENTURY INDIA (PART-4)- मुहम्मद शाह (1719 -1748)

नसीरुद्दीन मुहम्मद शाह (जन्म का नाम रोशन अख़्तर) 

मुहम्मद शाह के जन्म का नाम रोशन अख्तर था। इसने तीस साल शासन किया । इसके वजीर का नाम निजाम उल मुल्क था जो 1722 में वजीर बना। इसका राजकाज पर कोई ध्यान नहीं था।   इन्हें मोहम्मद शाह रंगीला के नाम से भी जाना जाता है।  यह बड़े ही रंगीन तबके के थे इन्हें नाच गाने का बड़ा शौक था।  

इन का राज्याभिषेक 1719 में सैयद बंधुओं की सहायता से हुआ। परंतु मोहम्मद शाह को सैयद बंधु से काफी खतरा पैदा हो गया था क्योंकि उन्होंने पहले भी कई सारे मुगल सम्राटों का कत्ल करवाया था। जिसके कारण उन्होंने सर्वप्रथम निजाम उल मुल्क (जो कि आगे चलके हैदराबाद के निजाम बने) की सहायता से सैयद बंधुओं को खत्म करवा दिया। 

पर कपटी और नालायक चापलूसों के प्रभाव के कारण मुहम्मद शाह ने वजीर का साथ नहीं दिया । मुहम्मद शाह कृपापात्र दरबारियों के घूस में हिस्सा भी लेने लगा था। वजीर राजा के ढुलमुल रवैया और शक्की मिजाज से परेशान था, इस कारण से अक्तूबर 1724 में वजीर ने अपना ओहदा छोड़ दिया और हैदराबाद रियासत की नींव डाली। वजीर के जाने से मुगल साम्राज्य का विखराव शुरू हुआ। 

उस वक्त कई विदेशी शक्तियों की नजर मुगल सल्तनत पर पड़ी थी क्योंकि उस वक्त मुगल काफी कमजोर थे। पिछले कई वर्षों में कई सारे सम्राटों के गद्दी पर बैठने के कारण मुगल साम्राज्य कमजोर पड़ गया था जिसके कारण कई विदेशी शक्तियां भारत पर अपने पांव पसार रही थी। दिल्ली के बादशाह के प्रति नाममात्र की निष्ठा जाहीर कर बंगाल, हैदराबाद, अबध, पंजाब जैसे खानदानी नबाबों का देश भर में उदय हुआ। हर जगह बगावत होने लगी । मराठों ने उत्तर की ओर मालवा , गुजरात और बुंदेलखंड को रौंद दिया। 

1739 में नादिरशाह ने ईरान से भारत की ओर रुख किया और हिंदू कुश के पहाड़ को पार करते हुए पेशावर के सूबेदार को पराजित कर 1739 में भारत में दाखिल हो गया।  उसने करनाल पहुंचकर मुगल सम्राट मोहम्मद शाह की सेनाओं को (जो कि करीब 100000 से भी अधिक की थी)  पराजित किया और मुगल सम्राट को लेकर दिल्ली की ओर चल दिया।  

उसने  दिल्ली के जाकर खुद को सुल्तान घोषित कर दिया।  दिल्ली में उसके नाम को खुदबा पढ़ा गया परंतु बाद में उस पर दिल्ली में घुसते हुये उसके सीने पर प्रहार हुआ। नादिरशाह इस बात से नाखुश हो गया और उसने सभी सैनिकों को दिल्ली में लूटपाट मचाने का आदेश दे दिया। दिल्ली में भयानक लूट मचाई गई।  40000 से भी ज्यादा लोगों का कत्ल करवाया गया। 

अरबों का खजाना लाल किले से लूटकर ले जाया गया जिसमें कोहिनूर और तख़्त ताउज (मयूर सिंहासन) भी शामिल था।  ये हार उसके लिए बहुत बड़ी थी जिसे मुगल सम्राट की ताकत बिल्कुल शक्तिहीन हो गई और भारत में विदेशी शक्तियों का बोलबाला हो गया। यह उसके कम नेतृत्व क्षमता और अदूरदर्शिता को दर्शाता था । 

इसके कारण ही मुगल साम्राज्य का पतन होना शुरू हो गया । और 1748 में  उसका निधन हो गया।  उसका निधन बहुत बुरी तरीके से हुआ।  निजाम उल मुल्क की युद्ध मे मौत हो जाने के कारण वह अकेले कमरे में बैठकर चिल्लाया करता थे और उसका दुख उसे सहन नहीं हुआ और अंत में 1748 में उसकी मौत हो गई उसके बाद उसके पुत्र अहमद शाह बहादुर मुगल सम्राट बने। 


Thursday, June 18, 2020

June 18, 2020

18TH CENTURY INDIA (PART-3)- फ़र्रुख़ सियर (1713-1719)

फर्रूखसियर 
फ़र्रुख़ सियर (1713-1719)


फ़र्रुख़ सियर (जन्म: 20 अगस्त 1685 - मृत्यु: 19 अप्रैल 1719) एक मुग़ल बादशाह था जिसका पूरा नाम अब्बुल मुज़फ़्फ़रुद्दीन मुहम्मद शाह फ़र्रुख़ सियर था। आलिम अकबर सानी वाला, शान पादशाही बह्र-उर्-बार, तथा शाहिदे-मज़्लूम उसके शाही ख़िताबों के नाम हुआ करते थे। 

1715 ई. में एक शिष्टमंडल जाॅन सुरमन की नेतृत्व में भारत आया। यह शिष्टमंडल उत्तरवर्ती मुग़ल शासक फ़र्रूख़ सियर की दरबार में 1717 ई. में पहुँचा। उस समय फ़र्रूख़ सियर जानलेवा घाव से पीड़ित था। इस शिष्टमंडल में हैमिल्टन नामक डाॅक्टर थे जिन्होनें फर्रखशियर का इलाज किया था।इससे फ़र्रूख़ सियर खुश हुआ तथा अंग्रेजों को भारत में कहीं भी व्यापार करने की अनुमति तथा अंग्रेज़ों द्वारा बनाऐ गए सिक्के को भारत में सभी जगह मान्यता प्रदान कर दिया गया। फ़र्रूख़ सियर द्वारा जारी किये गए इस घोषणा को ईस्ट इंडिया कंपनी का मैग्ना कार्टा कहा जाता है।

फर्रुखशियर के पिता अजीम ओशान की 1712 में जहांदर शाह द्वारा हत्या कर दी गई थी और जहांदर शाह ने अपने पिता की हत्या कर मुगल सम्राट बना था   अपने पिता की मौत का बदला लेने के लिए  10 जनवरी 1713 में समूगढ के युद्ध में फर्रूखसियर ने जहांदरशाह की सेनाओं को पराजित किया। समूहगढ के निकट जहांदार शाह की हत्या कर दी गई। फिर  वो  1713 में दिल्ली पहुंचा और अपने  आप को मुगल साम्राट घोषित किया । 

इस जीत का श्रेय सैयद बंधु (अब्दुल्ला खान और हुसैन अली खान) को था।  अपने पूरे 6 वर्ष के कार्यकाल में फर्रूखसियर सैयद बंधुओं के चंगुल से आजाद ना हो सका। उसने  सैयद हुसैन अली खान को अपना वजीर घोषित किया जबकि वह उसको वजीर घोषित नहीं करना चाहता था परंतु शायद बंधुओं के दबाव पर उसने उसको अपना वजीर घोषित किया। और अब्दुल्ला खान को मीर बक्शी घोषित किया गया । 

फर्रुखशियर में शासन करने की क्षमता नहीं थी। वो कायर, क्रूर , बेईमान और अमानवीय था । उसने अजित सिंह को रोकने का पूर्ण प्रयत्न किया परंतु अजीत सिंह को रोकने में सफल नहीं रहा क्योंकि लगातार दक्षिण भारत में व्यस्त रहने के कारण उत्तर भारत में कई राजपूत एवं जाट शक्तियां वापस मजबूत हो गयी थीं पर बाद में अजीत सिंह की बेटी से विवाह कर अजीत सिंह को रोक लिया गया । 


परंतु बंदा सिंह बहादुर को लेकर उसको बड़ी मेहनत करनी पड़ रही थी । बंदा सिंह बहादुर ने 1708 से मुगलों की  नाक में दम कर रखा था। 1716 में उन्होंने बंदा सिंह बहादुर को पकड़ लिया और 40 सिखों की हत्या कर दी गयी । बाद में उन्होंने बुरी तरह से से बंदा सिंह बहादुर की हत्या कर दी गयी ।  इससे पूरे सिख लोगों में मुगलों के विरुद्ध एक आक्रोश की भावना पैदा हो गयी। 


मराठों के विरुद्ध भी फर्रूखसियर की नीति कुछ अलग थी। सैयद हुसैन अली खान फर्रूखसियर को अपना गुलाम बनाना चाहता था। इसलिए फर्रूखसियर ने उसके आदेशों को ना मानना शुरू कर दिया और उसने ढक्कन में मराठों से सहायता मांगी। उसने मराठों को दक्कन में सरदेशमुखी और चौथ वसूलने के लिए इजाजत दे दी जिससे फर्रूखसियर काफी नाराज हो गया। 

तब फर्रूखसियर ने सैयद बंधुओं को पराजित करने का फैसला किया परंतु ऐसा करने में सफल नहीं हो सका क्योंकि सैयद बंधु बहुत ही ताकतवर मंत्री थे और उनका प्रभाव संपूर्ण मुगल दरबार में था।हुसैन अली बहुत ही ताकतवर मंत्री था।  अंततः उसने मराठों से संबंध स्थापित किए और 1719 में फर्रुखसियार का वध करवा दिया गया। 

उसके बाद उसने दो मुगल सम्राटों के छोटे-छोटे कार्यकाल के लिए गद्दी पर बैठाया पर वो क्षय रोग से मर गए । फिर 18 वर्षीय मोहम्मद शाह को 1719 में मुगल सम्राट बनाया गया।  उसने निजाम उल मुल्क की (जो कि बाद में चलकर हैदराबाद के निजाम बने) सहायता लेकर सैयद बंधुओं को खत्म किया और 1723 में एक स्वतंत्र मुगल सम्राट के रूप में उभरा । पर सम्राट बनने के बाद मुगल साम्राज्य कुछ खास विस्तार नहीं किया बल्कि मुगल साम्राज धीरे-धीरे खत्म होना शुरू हो गया।

सैयद बंधु

1713-1719 तक सैयद बंधु का राजकीय शासन था । इन्होने धार्मिक सहिष्णुता की नीति अपनाई। राजपूत, मराठों और जाटों के साथ  मेल मिलाप किया । इन्होने इन लोगों का इस्तेमाल फर्रूखसियर  और विरोधी सामंतों के खिलाफ किया । फर्रूखसियर के गद्दी पर बैठते ही जज़िया कर और तीर्थ यात्री कर खत्म कर दिया गया। 

मारवाड़ के  अजित सिंह, आमेर के जय सिंह और अनेक राजपूत राजकुमारों को प्रभावशाली ओहदे दिये। जाट चूरामन के साथ दोस्ती की। बाद के वर्षों मे राजा साहू को (शिवाजी का) स्वराज्य तथा दक्कन के 6 प्रान्तों के चौथ और सरदेशीमुखी वसूल करने का अधिकार दिया । इसके बदले मे साहू के 15000 घुड़सवारों द्वारा  दक्कन मे समर्थन दिया गया । 

बगावत को दबाने के लिए किए गए प्रयासों पर विफलता मिली क्योंकि उसे निरंतर राजनीतिक झगड़ों और दरबार के षडयंत्र का सामना करना पड़ा। 

वित्तीय व्यवस्था खराब हो चुकी थी । जमीदारों ने राजस्व देने से मना कर दिया था । अफसर भी राजकीय आमदनी का गबन करते थे। इजारा व्यवस्था के फलस्वरूप केंद्रीय आय कम हो चुकी थी , इसलिए अफसर और सैनिकों की तनख्वाह नियमित रूप से नहीं दी जा सकी थी जिसके कारण इनमें अनुशासनहीनता और विद्रोह की भावना आ चुकी थी । 

सैयद भाइयों की बड़ती ताकत से लोग ईर्ष्या करने लाहे थे और सामंत भयभीत थे क्योंकि सैयद बंधुओं ने फर्रूखसियर को मार दिया था। फर्रूखसियर की हत्या से दोनों भाइयों के खिलाफ जनता में घृणा की एक लहर हो गयी । इस कारण से इन दोनों को विश्वासघाती और नमकहराम के रूप मे जाने जाना लगा । इसके अलावा औरंगजेब के जमाने के सामंतों ने मराठों और राजपूतों के प्रति नरमी को नापसंद किया और हिंदुओं के प्रति नरमी भी पसंद नहीं की । तब सामंतों ने घोषणा की कि दोनों भाई मुगल विरोधी और इस्लाम विरोधी नीति अपने रहे हैं ।   
1720 में  छोटे भाई हुसैन अली  खान को धोखे से मारने की कोशिश भी की गयी । अब्दुल्ला खान आगरा के पास हार गया। 
मुहम्मद शाह को विरोधी सामंतों का समर्थन था । निजाम उल मुल्क और सैयद भाइयों के पिता के रिश्ते के भाई मुहम्मद अमीन खान का एक शक्तिशाली गुट के षडयंत्र से सैयद भाइयों को हटा दिया गया 




Friday, June 5, 2020

June 05, 2020

18TH CENTURY INDIA (PART-2)- जहांदर शाह (1712-13)

जहांदर शाह (1712-13)

जहांदार शाह(1712-1713) हिन्दुस्तान का मुगल सम्राट था। इसने यहां 1712-1713 तक राज्य किया। बहादुरशाह का ज्येष्ठ पुत्र जहाँदारशाह था जो 1661 में उत्पन्न हुआ। पिता की मृत्यु के पश्चात् सत्ता के लिये इसे अपने भाइयों से संघर्ष करना पड़ा। 

जुल्फिकार उस समय का सबसे शक्तिशाली सामंत था। मीर बख्शी जुल्फिकार खाँ का जहांदार शाह को समर्थन था और उसने जहांदार शाह को सहायता दी।  जहांदार शाह का एक भाई अजीम-अल-शान लाहौर के निकट युद्ध में मारा गया। शेष दो भाइयों- जहानशाह और रफी-अल-शान को पदच्युतकर सम्राट् बनने में यह सफल हुआ। 

इस तरह पहली बार महत्वाकांक्षी सामंत सत्ता के सीधे दावेदार बने। उन्होने गद्दी हथियाने के लिए शहजादों का इस्तेमाल किया।

जहांदार शाह के कमजोर और पतित शहजादा था। उसमे सहव्यवहार, बड़प्पन और शिष्टाचार की कमी थी।  विलासी प्रकृति के जहाँदारशाह ने समूचे राज्य के प्रति उपेक्षा बरती।

इस तरह प्रशासन सीधे जुल्फ़ीकार खाँ के हाथों मे आ गया जो एक योग्य और कर्मठ आदमी था।

 जुल्फिकार खाँ वजीर बना । उसने निम्न कार्य किए : 

  • उसने जज़िया कर को खत्म किया। आमेर के जय सिंह को मिर्जा सवाई की  पदवी प्रदान की और उसे मालवा का सूबेदार बनाया। मारवाड़ के अजित सिंह को महाराजा की पदवी और उसे गुजरात का सूबेदार बनाया। मराठा शासक को दक्कन की चौथ वसूलने का अधिकार दिये। 

  • मराठो को सरदेशमुखी के अधिकार इस शर्त पर दिये कि वसूली  मुगल शासक करेंगे। यह व्यवस्था दक्कन मे सहायक दाऊद ख़ान की पत्नी ने ने 1711 में  मराठा राजा साहू के साथ में की  थी। 

  • चूरामन जाट और छत्रसाल बुंदेला से मेल मिलाप की नीति अपनाई। बंदा और सिखों  के साथ दमन के नीति पर कायम रहा 

  • जागीरों और ओहदों की  अंधाधुंध वृद्दि पर रोक लगाई । मंसबदारों  को अधिकृत संख्या में फौज रखने पर मजबूर किया। 

  • ईज़ारा व्यवस्था  को बढ़ावा दिया जो टोडरमल की  भू – राजस्व व्यवस्था  पर आधारित था। इजारेदार लगान के ठेकेदार होते थे। उसने इजारेदार और विचोलियों  के साथ करार किया। इसके तहत ईजारेदार सरकार को एक निश्चित राशि देंगे और  इजारेदार को  किसान से जितना चाहे लगान वसूलने का अधिकार मिल गया। पर इस वजह से किसानों  का उत्पीड़न  बढ़ा

अनेक लोगों ने बादशाह के कान भरे और जुल्फिकार खान के खिलाफ  षड्यंत्र किया । इस तरह बादशाह ने जुल्फिकार खान को अधिक सहयोग नहीं दिया। 

1712 में अब्दुल्लाखाँ, हुसेन अलीखाँ और फर्रुखसियर ने इसके विरुद्ध पटना से कूच किया। आगरा में जहाँदारशाह ने टक्कर ली। 1713 में फर्रुखसियर के हाथों हार मिली। 

पराजित होकर इसने दिल्ली में जुल्फिकार खाँ के पिता असदखाँ के यहाँ शरण ली। असदखाँ ने इसे दिल्ली के किले में कैद कर लिया। फर्रुखसियर ने विजयी होते ही इसकी हत्या करवा दी।

जहांदार शाह को लम्पट मुर्ख भी कहा जाता था । इसे लम्पट मुर्ख की उपाधि इतिहासकार 'इरादत खां' ने प्रदान की 



Sunday, May 31, 2020

May 31, 2020

18th Century India (Part-1) , बहादुर शाह

बहादुर शाह 
बहादुर शाह (1707-1712)

बहादुर शाह प्रथम का जन्म 14 अक्तूबर, सन् 1643 ई. में बुरहानपुर, भारत में हुआ था। बहादुर शाह प्रथम दिल्ली का सातवाँ मुग़ल बादशाह (1707-1712 ई.) था। 'शहज़ादा मुअज्ज़म' कहलाने वाले बहादुरशाह, बादशाह औरंगज़ेब का दूसरा पुत्र था। जो अपने भाई आज़म शाह को मुगल राजगद्दी से हटाकर मुगल सम्राट बना। अपने पिता के भाई और प्रतिद्वंद्वी शाहशुजा के साथ बड़े भाई के मिल जाने के बाद शहज़ादा मुअज्ज़म ही औरंगज़ेब के संभावी उत्तराधिकारी बना। बहादुर शाह प्रथम को 'शाहआलम प्रथम' के नाम से भी जाना जाता है

बहादुर शाह 65 वर्ष की उम्र मे राजा बना । ये तीन भाई थे। औरंगज़ेब की मृत्यु के बाद उसके 63 वर्षीय पुत्र 'मुअज्ज़म' (शाहआलम प्रथम) ने लाहौर के उत्तर में स्थित 'शाहदौला' नामक पुल पर मई, 1707 में 'बहादुर शाह' के नाम से अपने को सम्राट घोषित किया। 

बूँदी के 'बुधसिंह हाड़ा' तथा 'अम्बर' के विजय कछवाहा को उसने पहले से ही अपने ओर आकर्षित कर लिया था। उनके माध्यम से उसे बड़ी संख्या में राजपूतों का समर्थन प्राप्त हो गया। उत्तराधिकार को लेकर बहादुरशाह प्रथम एवं आमजशाह में सामूगढ़ के समीप 'जाजऊ' नामक स्थान पर 18 जून, 1708 को युद्ध हुआ, जिसमें आजमशाह तथा उसके दो बेटे 'बीदर बख़्त' तथा 'वलाजाह' मारे गये। 

बहादुरशाह प्रथम को अपने छोटे भाई 'कामबख़्श' से भी मुग़ल सिंहासन के लिए लड़ाई लड़नी पड़ी। कामबख़्श ने 13 जनवरी, 1709 को हैदराबाद के नजदीक बहादुशाह प्रथम के विरुद्ध युद्ध किया। युद्ध में पराजित होने के उपरान्त कामबख़्श की मृत्यु हो गई।

अपनी विजय के बाद बहादुर शाह प्रथम ने अपने समर्थकों को नई पदवियाँ तथा ऊचें दर्जे प्रदान किए। मुनीम ख़ाँ को वज़ीर नियुक्त किया गया। औरंगज़ेब के वज़ीर, असद ख़ाँ को 'वकील-ए-मुतलक़' का पद दिया था, तथा उसके बेटे ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को मीर बख़्शी बनाया गया। 

बहादुरशाह प्रथम गद्दी पर बैठने वाला सबसे वृद्ध मुग़ल शासक था। वह अत्यन्त उदार, आलसी तथा उदासीन व्यक्ति था। इतिहासकार ख़फ़ी ख़ाँ ने कहा है कि, बादशाह राजकीय कार्यों में इतना अधिक लापरवाह था, कि लोग उसे "शाहे बेख़बर" कहने लगे थे। बहादुर शाह प्रथम के शासन काल में दरबार में षड्यन्त्र बढ़ने लगा। 

बहादुर  शाह प्रथम शिया था, और उस कारण दरबार में दो दल विकसित हो गए थे- 

(1.) ईरानी दल 

(2.) तुरानी दल। 

ईरानी दल 'शिया मत' को मानने वाले थे, जिसमें असद ख़ाँ तथा उसके बेटे जुल्फिकार ख़ाँ जैसे सरदार थे। तुरानी दल 'सुन्नी मत' के समर्थक थे, जिसमें 'चिनकिलिच ख़ाँ तथा फ़िरोज़ ग़ाज़ीउद्दीन जंग जैसे लोग थे।

वह विद्दान था और आत्मगौरव से परिपूर्ण था । उसने मेल मिलाप की नीति अपनाई । वह हिन्दू सरदारों और राजाओं के प्रति नम्र था । उसने मंदिरों को नष्ट नहीं किया । 

सम्राट और राजपूत

बहादुर शाह प्रथम ने उत्तराधिकार के युद्ध के समाप्त होने के बाद सर्वप्रथम राजपूताना की ओर रुख़ किया। उसने मारवाड़ के राजा अजीत सिंह को पराजित कर, उसे 3500 का मनसब एवं महाराज की उपाधि प्रदान की, परन्तु बहादुर शाह प्रथम के दक्षिण जाने पर अजीत सिंह, दुर्गादास एवं जयसिंह कछवाहा ने मेवाड़ के महाराज अमरजीत सिंह के नेतृत्व में अपने को स्वतंत्र घोषित कर लिया और राजपूताना संघ का गठन किया। 

बहादुर शाह प्रथम ने इन राजाओं से संघर्ष करने से बेहतर सन्धि करना उचित समझा और उसने इन शासकों को मान्यता दे दी।

इस तरह उसने आमेर और मारवाड़ (जोधपुर) के राजपूत राज्यों पर पहले से अधिक नियंत्रण करने की कोशिश की। आमेर की गद्दी पर जयसिंह को हटाकर उसके भाई विजय सिंह को बैठाने की कोशिश की। मारवाड़ के  राजा अजित सिंह को मुगल सत्ता को अधीनता स्वीकार करने के लिए मजबूर करने की कोशिश की। दोनों (आमेर और जोधपुर) शहरों में फौजी डेरा जमाने की कोशिश की, पर उसे कडा प्रतिरोध मिला। तब उसे अपनी गलती का अहसास हुआ और दोनों  से समझौता कर लिया । 

पर समझौता उदारपूर्ण नहीं था । जयसिंह और अजित सिंह को अपने अपने राज्य वापिस मिल गए पर उनको महतावपूर्ण सूबों (जैसे गुजरात) के अधिकार नहीं मिले । 

सम्राट और मराठा राज्य 


बहादुर शाह प्रथम को 'शाहे बेख़बर' कहा जाता था। राजपूतों की भांति मराठों के प्रति भी बहादुर शाह प्रथम की नीति अस्थिर रही। उसने मराठों के प्रति ऊपरी तौर पर ही मेल मिलाप की नीति अपनाई। 


बहादुर शाह प्रथम की क़ैद से मुक्त शाहू ने आरंभ में तो मुग़ल आधिपत्य स्वीकार कर लिया, परन्तु जब बहादुर शाह प्रथम ने मराठों को  'चौथ' और 'सरदेशमुखी' वसूल करने के अधिकार नहीं दिये , तब मराठे उससे असंतुष्ट हो गए और उसके सरदारों ने मुग़ल सीमाओं पर आक्रमण करके मुग़लों के अधीन शासकों द्वारा मुग़ल सीमाओं पर भी आक्रमण करने की ग़लत परंपरा की नींव डाली। बहादुर शाह ने साहू को राजा नहीं माना । उसने मराठा राज्य के अधिकार के लिए ताराबाई और साहू को आपस में लड़वाया । 

इस प्रकार मुग़लों की समस्या को बहादुर शाह प्रथम ने और गम्भीर बना दिया। बहादुर शाह प्रथम ने मीरबख़्शी के पद पर आसीन ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को दक्कन की सूबेदारी प्रदान कर एक ही अमीर को एक साथ दो महत्त्वपूर्ण पद प्रदान करने की भूल की। उसके समय में ही वज़ीर के पद के सम्मान में वृद्धि हुई, जिसके कारण वज़ीर का पद प्राप्त करने की प्रतिस्पर्द्धा बढ़ी।

सम्राट और सिख 

गुरु गोविंद सिंह के साथ मेल मिलाप के संबंध थे। 8 जून 1707 ई. आगरा के पास जांजू के पास लड़ाई लड़ी गई, जिसमें बहादुरशाह की जीत हुई। कहा जाता है कि गुरु जी ने अपने सैनिकों द्वारा जांजू की लड़ाई में बहादुरशाह का साथ दिया, उनकी मदद की। इससे बादशाह बहादुरशाह की जीत हुई। सम्राट के भाई कामबख़्श ने बग़ावत कर दी। बग़ावत दबाने के लिए बादशाह दक्षिण की तरफ़ चला और विनती करके गुरु जी को भी साथ ले गया।

पंजाब में 1708 ई. में गुरु गोविन्द सिंह की मुत्यु के बाद सिक्खों ने बन्दा सिंह के नेतृत्व में मुग़लों के विरुद्ध विद्रोह कर दिया। उसने मुसलमानों के विरुद्ध लड़ने के लिए पंजाब के विभिन्न हिस्सों से बड़ी संख्या में सिक्खों को इकट्ठा किया तथा कैथल, समाना, शाहबाद, अम्बाला, क्यूरी तथा सधौरा पर क़ब्ज़ा कर लिया।


बहादुर शाह प्रथम ने कड़ी कारवाई की और सेना का नेतृत्व खुद किया । बहादुर शाह ने ने सिख नेता बन्दा को दण्ड देने के लिए 26 जून, 1710 को सधौरा में घेरा डाला। यहाँ से बन्दा भागकर लोहागढ़ के क़िले में आ गया। बहादुरशाह ने लोहगढ़ को घेरकर सिखों से कड़ा संघर्ष करते हुए, अन्ततः दुर्ग पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु क़ब्ज़े के पूर्व ही बन्दा फरार हो गया। 


1711 ई. में मुग़लों ने पुनः सरहिन्द पर अधिकर कर लिया। लोहगढ़ का क़िला गुरु गोविन्द सिंह ने अम्बाला के उत्तर-पूर्व में हिमालय की तराई में बनाया था। 1712 में सिखों ने लोहगढ़ के किले पर पुनः अधिकार कर लिया

बहादुर शाह प्रथम ने बुन्देला सरदार 'छत्रसाल' से मेल-मिलाप कर लिया। छत्रसाल एक निष्ठावान सामन्त बना रहा।

चूरामन एक जाट सरदार था। बादशाह ने चूरामन से दोस्ती की और बंदा बहादुर के खिलाफ अभियान मे साथ दिया। 


बहादुर शाह की मृत्यु 


बहादुर शाह के शासन काल मे शासन के हालत खराब  थे । 1707 में 1300 करोड़ की रकम थी पर उसके शासन काल मे सब खतम हो गया । 

26 फ़रवरी, 1712 को बहादुर शाह प्रथम की मृत्यु हो गयी। मृत्यु के पश्चात् उसके चारों पुत्रों, जहाँदारशाह, अजीमुश्शान, रफ़ीउश्शान और जहानशाह में उत्तराधिकार का युद्ध आरंभ हो गया। फलतः बहादुरशाह का शव एक मास तक दफनाया नहीं जा सका।


Friday, January 10, 2020

January 10, 2020

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-Part-4: राजनीतिक विचार और संगठन

राजनीतिक विचार और संगठन

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-Part-4: राजनीतिक विचार और संगठन

प्रशासन व्यवस्था गुप्त साम्राज्य , हर्ष के राज्य व चालुक्यों के आचार विचार पर आधारित थी। लगभग हर राज्य में पत्राचार से संबधित एक मंत्री होता था जो विदेश मंत्री की तरह कार्य करता था । 

इस काल मे छोटे सरदारों की संख्या बढ़ी जिन्हें सामंत या भोगपति कहा जाता था

गाँव प्रशासन की बुनियादी इकाई था । इसका प्रशासन मुखिया और लेखाकार द्वारा चला जाता था जो आमतौर पर पुश्तैनी होते थे । उन्हे बुजुर्गों से सहायता मिलती थी  जो महाजन या महत्तर कहे जाते थे। 

राष्ट्रकूट साम्राज्य मे विधालयों , मंदिरों और सड़कों की देखभाल के लिए ग्राम समितियां होती थी। 
 
 शासक 
· सभी मामलों का केंद्र था 

· प्रशासन का प्रमुख होता था 

· सशस्त्र बलों का प्रमुख सेनापति भी होता था 

· एक शानदार दरबार लगता था 

· पैदल और घुड़सवार सेना को दालान में रखा जाता था 

· युद्द में पकड़े गए हथियों व घोड़ों को उसके सामने पेश किया जाता था 

· राजकीय सहायक सदैव उसकी सेवा में रहते थे 

- सामंतों , सरदारों, राजदूतों को ये ही नियंत्रित करते थे 

- अन्य उच्च अधिकारियों पर नजर रखते थे 

· राजा ही न्याय करता था 

दरबार


· राजनीतिक मामलों व न्याय का केंद्र होता था 

· सांस्कृतिक जीवन का भी केंद्र होता था 

· नर्तकियाँ व कुशल संगीतकार दरबार में उपस्थित रहते थे 

· उत्सव के दौरान राजपरिवार की महिलाएं भी उपस्थित रहती थी 

· स्त्रियाँ अपने चेहरे नहीं ढकती थी 

राजा का पद पुश्तैनी होता था। राजाओं के बीच और राजा व उनके मातहतों के बीच युद्द होते रहते थे।  राजा अपने राज्यों के अंदर कानून व्यवस्था बनाने के प्रयास करते थे पर दूर दराज में उनके आदेश कभी कभार ही लागू होते थे क्योंकि अधीन शासक व स्वायत्त सरदार अकसर राजा के प्रत्यक्ष शासन को सीमित कर देते थे 

राजा अक्सर राजाधिराज परमभट्टारक आदि की उपाधि धारण करते थे और चक्रवर्ती (सभी राजाओं में सबसे सर्वोच्च) होने का दावा करते थे 

मेधातिथि


एक समकालीन लेखक था। इसके अनुसार अपने आप  को चोरो और हत्यारों से बचाने के लिए शस्त्र धारण करना हर एक व्यक्ति का अधिकार था। और अन्यायी राजा का विरोध करना उचित था

उत्तराधिकार संबंधी नियम



ढीले थे और अकसर ज्येष्ट पुत्र ही उत्तराधिकारी होता था । कभी कभी ज्येष्ट पुत्रों को अपने छोटे भाइयों से लड़ना पड़ता था और कभी कभी वे पराजित भी होते थे । जैसे राष्ट्रकूट राजा ध्रुव और गोविंद चतुर्थ ने अपने बड़े भाइयों को सत्ताच्युत किया 

कभी कभी राजा ज्येष्ट पुत्र या अपने किसी और प्रिय पुत्र को युवराज घोषित कर देते थे  तब युवराज राजधानी में ही रहता और प्रशासन के कामों में सहायता करता । 

कनिष्ठ पुत्रों को कभीकभी प्रान्तों का अधिपति बना दिया जाता था 

राजकुमारियों का शासन के पदो पर शायद ही कभी नियुक्त किया जाता हो  जैसे एक उदाहरण हैं कि एक राष्ट्रकूट राजकुमारी चंद्रबालाब्बी ने जो अमोघवर्ष की पुत्री थी कुछ समय तक रायचूड दोआब का प्रशासन चलाया 

मंत्री


राजा के लिए सलाह के लिए होता था । मंत्रियों का चुनाव राजा मुख्य परिवारों से करता था । 

पद पुश्तैनी होता था । जैसे पाल राजा  के समक में एक ही ब्राह्मण परिवार के क्रम से चार सदस्य धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों के मुख्यमंत्री हुए । तब मुख्यमंत्री बहुत शक्तिशाली बन जाता था 

हर राज्य में पत्राचार से जुड़ा एक मंत्री होता था , जो विदेश मंत्री की तरह काम भी करता था 

एक राजस्व मंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, मुख्य न्यायधीश, और पुरोहित होते थे । एक मंत्री एक से अधिक पद पर हो सकता था 

 मंत्रियों में एक अग्रणी होता था जिस पर राजा दूसरों से अधिक निर्भर रहता था 

पुरोहित को छोड़कर सभी मंत्रियो से यह आशा की जाती थी ये जरूरत पड़ने पर देण्या अभियानों का नेतृत्व करेंगे 

राजा सत्ता का स्त्रोत होता था । 

राजपरिवार के कुछ अधिकारी बहुत शक्तिशाली बन जाते थे 

सशस्त्र बल


· पाल, प्रतिहार, और राष्ट्रकूट, राजाओं के पास विशाल, सुसंगठित पैदल, और घुड़सवार सेना थी । 

· बड़ी संख्या में जंगी हाथी थे।  हाथी शक्ति का आधार  होता था 

- सबसे बड़ी संख्या पाल राजाओं के पास थी 

· घोड़ो का आयात, राष्ट्रकूट व प्रतिहार के समय दोनों ही समुद्र के रास्ते अरब और मध्य एशिया से  स्थल के रास्ते खुरासान (पूर्वी फारस) और मध्य एशिया से करते थे । 

- सबसे अच्छी घुड़सवार सेना प्रतिहार राजाओं के पास थी 

· युद्द के रथो का प्रचलन नहीं था 

· किले बड़ी संख्या  में  मिलते  हैं

- इनमे विशेष दस्ते तैयार रहते थे  और अपने अलग कमानदार होते थे 

· पैदल सेना में नियमित और अनियमित सैनिक होते थे। नियमित सैनिक पुश्तैनी होते थे और देश के विभिन्न भागों से भी भरती किए जाते थे । पालों की सेना में मलवा, खास (असम), लाट (दक्षिण गुजरात) और कर्नाटक से आए सिपाही होते थे 

- मातहत राजाओं के अस्थायी सैनिक होते थे 

· नौसेना पाल राजाओं व राष्ट्रकूट राजाओं की थी और इसके अलावा और कोई जानकारी नहीं है 

प्रशासित क्षेत्र


· सीधे प्रशासित व अधीन सरदारों द्वारा प्रशासित क्षेत्र भी 

· सरदाओं के क्षेत्र अंदरूनी मामले में स्वायत्त होते थे 

· सरदार राजा के प्रति निष्ठा रखते थे 

- राजा को निर्धारित कर या नजराना देते थे 

- निर्धारित संख्या में सैनिक प्रदान करते थे 

- सरदार के एक बेटा राजा की सेवा में रहता था ताकि संभावित विद्रोह न हो 

- कभी कभी अपनी बेटी का विवाह राजा के बेटे से करना पड़ता था 

- लेकिन ये अधीन सरदार हमेशा स्वतंत्र होने का प्रयास करते थे जैसे राष्ट्रकूटों को वेंगी (आंध्रा) व कर्नाटक के सरदारों के खिलाफ लड़ना पड़ता था और प्रतिहारों को मालवा के परमारों से और बुंदेलखंड के चंदेलों के खिलाफ पड़ता था 

· पाल और प्रतिहार साम्राज्य में 


प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्र भुक्ति (प्रान्तों) में और मण्डल या विषय (जिलों) में विभक्त थे 

- प्रांत का अधिपति उपरिक होता था  जिससे  भू राजस्व जमा करने और सेना की सहायता से कानून व्यवस्था बनाए रखने की आशा की जाती थी 

- जनपद का अधिपति विषयपति होता था 

· छोटे सरदार सामंत या भोगपति कहा जाता था जिंनका अनेक गाँव पर प्रभुत्व होता था 

- विषयपति और इन छोटे सरदारों का आपस में हेर फेर होता था।  आगे चलकर दोनों के लिए सामंत शब्द का उपयोग किया जाने लगा 

· राष्ट्रकूट साम्राज्य 


- प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्र  राष्ट्र (प्रान्तों) में और विषय व भुक्ति में विभक्त थे । विषय  आज के जिलों के समान व भुक्ति सबसे छोटी इकाई होती थी । 

- पाल और प्रतिहार साम्राज्य में विषय से छोटी इकाई को पत्तल कहते थे 

- राष्ट्र का प्रमुख  राष्ट्रपति होता था । इसका पाल और प्रतिहार साम्राज्य के उपरिक के समान कार्यभार था 


· सभी अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में राजस्वमुक्त भूमि दी जाती थी, इससे स्थानीय अधिकारियों तथा पुश्तैनी सरदारों और छोटे मातहत सरदारों का अंतर धुंधला जाता था और   कभी एक राष्ट्रपति या प्रांतीय शासक कभी कभी एक अधीनस्थ राजा की स्थिति पा जाता था 

· सबसे नीचे गाँव होता था जो प्रशासन की बुनयादी इकाई थी । प्रशासन गाँव के मुखिया और लेखाकार द्वारा किया जाता था।  यह एक पुश्तैनी पद होता था।  इन्हे राजस्वमुक्त भूमि के रूप में भुगतान किया जाता था 

- मुखिया को गाँव के बुजुर्गों से सहायता मिलती थी जिनको ग्राम महाजन या ग्राम महत्तर कहा जाता था 


समितियां 

· राष्ट्रकूट साम्राज्य में  स्थानीय विधालयों, तालाबों, मंदिरों, और सड़कों की देखभाल के लिए ग्राम समिति (जैसे कर्नाटक में) होती थी,  इनको ट्रस्ट के रूप में धन संपत्ति का संचय और उसका प्रबंध का अधिकार होता था 

- ये उपसमिति मुखिया से घनिष्ठ संबंध बनाकर कार्य करती थी और  जमा राजस्व का एक भाग पाती थी 

- मामूली विवाद इन समितियों द्वारा तय किए जाते थे   

- ऐसी समिति नगर में भी व दस्तकार संघों के प्रमुख इनसे जुड़े होते थे 

- नगरों में कानून व्यवस्था कोतवाल या कोष्टपाल का काम होता था 

नाद-गवुंड 


· ये दक्कन में पुश्तैनी राजस्व अधिकारी होते थे 

· ये देश ग्रामकूट भी कहलाते थे 

· इनके कार्य बाद में महाराष्ट्र में देशमुख और देशपांडे के जिम्मे आए 

· इनकी शक्ति बढ़ने से ग्राम समितियां कमजोर हुई 

· इन पर नियंत्रण करना केन्द्रीय शासक के लिए मुश्किल हो गया 

· शासन का सामंतीकरण भी इसे कहते हैं 

धर्म 


· अनेक शासक विष्णु या शिव के निष्ठावान भक्त थे 

· कुछ बौद्द और जैन धर्म की शिक्षा में विश्वास करते थे 

· ब्राह्मणों या बौद्द विहारों या जैन मंदिरों को बड़े बड़े दान दिये 

· सभी धर्मों को संरक्षण दिया 

· मुसलमानों को अपने धर्म प्रचार करने की अनुमति दी 

· ब्राह्मणों की रक्षा करना और चार वर्णों वाली सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना राजा का कर्तव्य था 

· पुरोहित राज्य के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था 

· मेधतिथि के अनुसार, राजा की सत्ता का स्त्रोत होता था जो  धर्म शास्त्र (जिसमें वेद भी शामिल) और अर्थशास्त्र की सहायता से शासन करता था । सार्वजनिक कर्तव्य अर्थशास्त्र अर्थात राजनीति के सिद्धांतों पर निर्भर होते थे। 

- धर्म राजा का निजी कर्तव्य था । राजनीति और धर्म को अलग अलग रखा जाता था 

· राजागण प्रतिपादित धार्मिक नियमों के अधीन नहीं होते थे । फिर भी राजा के पद को वैधता व शक्ति प्रदान करके लिए धर्म का महत्व था, इसलिए अनेक राजाओं ने अपनी राजधानियों में अनेक मंदिर बनवाए तथा मंदिरों और ब्राह्मणों के रखरखाव, भरण पोषण के लिए भारी भारी भूमिदान दिये


Wednesday, January 8, 2020

January 08, 2020

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-PART -3:राष्ट्रकूट वंश

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-PART -3:

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-PART -3:राष्ट्रकूट वंश

राष्ट्रकूट वंश

जब उत्तरी भारत में पाल और प्रतिहार वंशों का शासन था, दक्कन में राष्टूकूट राज्य करते थे। इस वंश ने भारत को कई योद्धा और कुशल प्रशासक दिए हैं। 

इस साम्राज्य की नींव 'दन्तिदुर्ग' ने डाली। दन्तिदुर्ग ने 750 ई. में चालुक्यों के शासन को समाप्त कर आज के शोलापुर के निकट अपनी राजधानी 'मान्यखेट' अथवा 'मानखेड़' की नींव रखी। शीघ्र ही महाराष्ट्र के उत्तर के सभी क्षेत्रों पर राष्ट्रकूटों का आधिपत्य हो गया। 

गुजरात और मालवा के प्रभुत्व के लिए इन्होंने प्रतिहारों से भी लोहा लिया। यद्यपि इन हमलों के कारण राष्ट्रकूट अपने साम्राज्य का विस्तार गंगा घाटी तक नहीं कर सके तथापि इनमें उन्हें बहुत बड़ी मात्रा में धन राशि मिली और उनकी ख्याति बढ़ी। 

वंगी (वर्तमान आंध्र प्रदेश) के पूर्वी चालुक्यों और दक्षिण में कांची के पल्लवों तथा मदुरई के पांड्यों के साथ भी राष्ट्रकूटों का बराबर संघर्ष चलता रहा। 

राष्ट्रकूटों मे गोविंद तृतीय (793-814 ई) और अमोघवर्ष (814-878 ई) महान राजा हुए। गोविंद तृतीय ने प्रतिहार राजा नागभट्ट को हराया था। गोविंद तृतीय ने श्रीलंका पर सफल चड़ाई की , उसने श्रीलंकाई शासकों के इष्टदेवों की दो मूर्तियों को मान्यखेत मे विजयस्तंभों के रूप मे लगवा दिया 

अमोघवर्ष के बाद साम्राज्य को इसके पोते इन्द्र तृतीय (915-927) ने संभाला , वो भी एक महान राजा हुआ। उसने महिपाल को हारा कर अपने समय के सबसे शक्तिशाली राजा के रूप मे अपनी पहचान बनाई। 

राष्ट्रकूट के अंतिम महान राजा कृष्ण तृतीय (929-965) थे, उसने चोल शासक परंतक प्रथम को पराजित किया और रामेश्वरम में विजयस्तंभ और मंदिर बनवाए।  

कृष्ण तृतीय के मौत के बाद राष्ट्रकूटों के उत्तराधिकारी के खिलाफ सभी विरोधी एक साथ हो गए और उन्होने 972 ई मे मान्यखेत पर हमला कर कर उसे जला कर नष्ट कर दिया । 

एलोरा का विश्व प्रसिद्द मंदिर राष्ट्रकूट राजा कृष्ण प्रथम ने 9वी सदी मे बनवाया था, कृष्ण प्रथम का उत्तरदिकारी अमोघवर्ष सम्भवत: जैन था । 

एलोरा का मंदिर(Ellora Kailash Temple)

अमोघवर्ष को काव्यशास्त्र पर कन्नड की प्रथम रचना का श्रेय दिया जाता है । 

राष्ट्रकूटों ने मुसलमान व्यापारियों को अपने राज्य में बसने की इजाजत और इस्लाम के प्रचार की भी छूट दी थी 

 इसी समय भारत आने वाले यात्री अल मसूदी के अनुसार 'बल्लभराज या बल्हर भारत का सबसे महान् राजा था और अधिकतर भारतीय शासक उसके प्रभुत्व को स्वीकार करते थे और उसके राजदूतों को आदर देते थे। 

उसके पास बहुत बड़ी सेना और असंख्य हाथी थे।

Tuesday, January 7, 2020

January 07, 2020

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-PART -2:प्रतिहार वंश

प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-PART -2:प्रतिहार वंश

प्रतिहार वंश



गुर्जर प्रतिहार वंश की स्थापना नागभट्ट नामक एक सामन्त ने 725 ई. में की थी। उसने राम के भाई लक्ष्मण को अपना पूर्वज बताते हुए अपने वंश को सूर्यवंश की शाखा सिद्ध किया। अधिकतर गुर्जर सूर्यवंश का होना सिद्द करते है तथा गुर्जरो के शिलालेखो पर अंकित सूर्यदेव की कलाकृर्तिया भी इनके सूर्यवंशी होने की पुष्टि करती है।आज भी राजस्थान में गुर्जर सम्मान से मिहिर कहे जाते हैं, जिसका अर्थ सूर्य होता है।

विद्वानों का मानना है कि इन गुर्जरो ने भारतवर्ष को लगभग 300 साल तक अरब-आक्रन्ताओं से सुरक्षित रखकर प्रतिहार (रक्षक) की भूमिका निभायी थी, अत: प्रतिहार नाम से जाने जाने लगे। रेजर के शिलालेख पर प्रतिहारो ने स्पष्ट रूप से गुर्जर-वंश के होने की पुष्टि की है। इनको गुर्जर प्रतिहार भी कहा जाता है । 

नागभट्ट प्रथम बड़ा वीर था। उसने सिंध की ओर से होने से अरबों के आक्रमण का सफलतापूर्वक सामना किया। साथ ही दक्षिण के चालुक्यों और राष्ट्रकूटों के आक्रमणों का भी प्रतिरोध किया और अपनी स्वतंत्रता को क़ायम रखा। 

नागभट्ट के भतीजे का पुत्र वत्सराज इस वंश का प्रथम शासक था, जिसने सम्राट की पदवी धारण की, यद्यपि उसने राष्ट्रकूट राजा ध्रुव से बुरी तरह हार खाई। 

वत्सराज के पुत्र नागभट्ट द्वितीय ने 816 ई. के लगभग गंगा की घाटी पर हमला किया, और कन्नौज पर अधिकार कर लिया। वहाँ के राजा को गद्दी से उतार दिया और वह अपनी राजधानी कन्नौज ले आया।

यद्यपि नागभट्ट द्वितीय भी राष्ट्रकूट राजा गोविन्द तृतीय से पराजित हुआ, तथापि नागभट्ट के वंशज कन्नौज तथा आसपास के क्षेत्रों पर 1018-19 ई. तक शासन करते रहे।

इस वंश का सबसे प्रतापी राजा भोज प्रथम था, जो कि मिहिरभोज के नाम से भी जाना जाता है और जो नागभट्ट द्वितीय का पौत्र था। भोज प्रथम ने (लगभग 836-86 ई.) 50 वर्ष तक शासन किया और गुर्जर साम्राज्य का विस्तार पूर्व में उत्तरी बंगाल से पश्चिम में सतलुज तक हो गया। इसने प्रतिहार वंश का पुनर्निर्माण करते हुए 836 ई मे कन्नौज पर फिर से कब्जा कर लिया । 
प्रतिहार राजा सम्राट मिहिर भोज 

भोज विष्णु का भक्त था और उसने आदिवराह की उपाधि धारण की, जो उसके सिक्कों पर भी अंकित है। उसे मिहिर भोज भी कहा जाता है। 

अरब व्यापारी सुलेमान इसी राजा भोज के समय में भारत आया था। उसने अपने यात्रा विवरण में राजी की सैनिक शक्ति और सुव्यवस्थित शासन की बड़ी प्रशंसा की है। 

भोज का पुत्र महेन्द्रपाल प्रथम 885 ई मे अगला सम्राट बना था, महेन्द्रपाल 'कर्पूरमंजरी' नाटक के रचयिता महाकवि राजेश्वर का शिष्य और संरक्षक था। इसने प्रतिहार साम्राज्य का विस्तार मगध और उत्तर बंगाल तक किया 

महेन्द्र का पुत्र महिपाल भी राष्ट्रकूट राजा इन्द्र तृतीय से 915 ई मे बुरी तरह पराजित हुआ। राष्ट्रकूटों ने कन्नौज पर क़ब्ज़ा कर लिया, लेकिन शीघ्र ही महिपाल ने पुनः उसे हथिया लिया। परन्तु महिपाल के समय में ही गुर्जर-प्रतिहार राज्य का पतन होने लगा। 

उसके बाद के राजाओं–भोज द्वितीय, विनायकपाल, महेन्द्रपाल द्वितीय, देवपाल, महिपाल द्वितीय और विजयपाल ने जैसे-तैसे 1019 ई. तक अपने राज्य को क़ायम रखा। देवपाल के शासन के अन्तिम दिनों में गुर्जर प्रतिहार साम्राज्य की शक्ति बढ़ने लगी।

महमूद ग़ज़नवी के हमले के समय कन्नौज का शासक राज्यपाल था। राज्यपाल बिना लड़े ही भाग खड़ा हुआ। बाद में उसने महमूद ग़ज़नवी की अधीनता स्वीकार कर ली। इससे आसपास के गुर्जर राजा बहुत ही नाराज़ हुए। 
महमूद ग़ज़नवी के लौट जाने पर कालिंजर के चन्देल राजा गण्ड के नेतृत्व में गुर्जर राजाओं ने कन्नौज के राज्यपाल को पराजित कर मार डाला और उसके स्थान पर त्रिलोचनपाल को गद्दी पर बैठाया। 

महमूद के दोबारा आक्रमण करने पर कन्नौज फिर से उसके अधीन हो गया। त्रिलोचनपाल बाड़ी में शासन करने लगा। उसकी हैसियत स्थानीय सामन्त जैसी रह गयी। कन्नौज में गहड़वाल वंश अथवा राठौर वंश का उद्भव होने पर उसने 11वीं शताब्दी के द्वितीय चतुर्थांश में बाड़ी के गुर्जर-प्रतिहार वंश को सदा के लिए उखाड़ दिया।

गुर्जर-प्रतिहार वंश के आन्तरिक प्रशासन के बारे में कुछ भी पता नहीं है। लेकिन इतिहास में इस वंश का मुख्य योगदान यह है कि इसने 712 ई. में सिंध विजय करने वाले अरबों को आगे नहीं बढ़ने दिया।

गुर्जर प्रतिहार वंश के शासक :

1
नागभट्ट प्रथम            
 730 से 760 ई० तक
2
देवराज गुर्जर           
 760 से 775 ई० तक
3
वत्सराज वीर गुर्जर        
775 से 810 ई० तक
4
नाग भट्ट द्वित्तीय          
810 से 833 ई० तक
5
रामभद वीर गुर्जर
833 से 836 ई० तक
6
मिहिर भोज                
836 से 885 ई० तक
7
महेंदर पाल गुर्जर        
  885 से 910 तक
8
महिपाल गुर्जर            
912 से 944 तक
9
महेंदर पाल द्वितीय        
944 से 984 तक
10
देव पाल गुर्जर            
984 से 990 तक
11
विजयपाल गुर्जर          
990 से 1005 तक
12
राज्यपाल गुर्जर          
1005 से 1018 तक
13
त्रलोचन पाल गुर्जर      
1018 से 1025 तक
14
यशपाल गुर्जर            
1025 से 1036 तक