बौद्ध दर्शन भारत का अत्यंत प्राचीन दर्शन है इसकी गिनती भारतीय दर्शन के अवैदिक या नास्तिक दर्शन में होती है ।
गौतम बुद्ध द्वारा प्रतिपादित बौद्ध दर्शन के अंतर्गत निम्नलिखित सिद्धांतों का अध्ययन किया जाता है
1. वेदों की प्रमाणिकता का खंडन
गौतम बुद्ध ने वैदिक कर्मकांड एवं उसकी प्रमाणिकता का खंडन किया।
उनका तर्क पर अधिक बल था
वे अंध श्रद्धा के आलोचक थे
उनका मानना था की अंध श्रद्धा से बुद्धि कुंठित हो जाती है और इस वजह से विचारों का आगमन नहीं हो पाता है
वेदों की प्रामाणिकता में विश्वास न रखने के कारण बौद्ध धर्म ईश्वर को इस सृष्टि का निर्माण कर्ता नहीं मानता है
बुद्ध का मत था कि मनुष्य की बुद्धि तार्किक होनी चाहिए
2. कर्मवाद
गौतम बुद्ध का दर्शन कर्मवाद का पक्षधर था ।
इस दर्शन के अनुसार के अनुसार मनुष्य जैसा कर्म करता है वैसे ही फल की प्राप्ति होती है
मानव का इहलोक और परलोक उसके कर्मों पर ही निर्भर करता है
बुद्द वैदिक कर्मकांड को कर्म की श्रेणी में नहीं रखते थे
वे मनुष्य की समस्त वाचित , कायिक और मानसिकता चेष्टाओं को कर्म मानते थे
उनका मानना था कि निम्न जाति का व्यक्ति भी अच्छे कर्मों से ज्ञान प्राप्त कर पापरहित मुनि बन सकता है और आचरण विहीन उच्च जाति का व्यक्ति भी शूद्र हो सकता है
बुद्द ने समाज में नैतिक आदर्श वाद स्थापित किया
3. अनात्मवाद
महात्मा बुद्ध ने आत्मा संबंधी विषय पर मध्यम मार्ग को अपनाया
उन्होंने ने न यह कहा कि आत्मा है और ना यह कहा कि आत्मा नहीं है
आत्मा संबंधी विषय पर विवाद करने से बुद्ध बचे रहें क्योंकि अगर वे कहते कि आत्मा है तो मनुष्य को अपने से आसक्ति हो जाती (आसक्ति ही दुख का मूल कारण थी )और आत्मा नहीं है तो मनुष्य को यह सोचकर की मृत्यु के बाद मेरा कुछ न शेष रहेगा, घोर मानसिक आघात पहुंचता
4. पुनर्जन्म बाद
बुद्ध ने जहां एक और आत्मा की अस्तित्व पर मौन धारण कर लिया है वहीं पुनर्जन्म की बात को स्वीकृति प्रदान की है
उनके अनुसार पुनर्जन्म आत्मा का नहीं बल्कि कर्म का होता है
जब मनुष्य की वासना और तृष्णा नष्ट हो जाती है तब मनुष्य पुनर्जन्म के चक्र से मुक्ति पा लेता है
5. निवार्ण
शादी की दृष्टि से निर्वाण का अर्थ बुझ जाना अथवा समाप्त हो जाना है
जिस प्रकार दीपक के बुझ जाने के पश्चात उसका प्रकाश समाप्त हो जाता है उसी प्रकार निर्माण प्राप्ति के पश्चात मनुष्य के अस्तित्व का भी अंत हो जाता है और समस्त दुखों से मुक्ति प्राप्त हो जाती है
मनुष्य बार-बार जन्म मरण की स्थिति मुक्त हो जाता है इस विषय में बुद्ध ने अपने शिष्यों को बताया है कि यह संसार अनादि हैं, तृष्णा से संचालित प्राणी इसमें भटकते फिरते हैं
निर्वाण इससे मुक्ति का मार्ग है
6. प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद बौद्ध दर्शन का केंद्र सिद्धांत है जो कारण कार्य संबंधी उनके मत को व्यक्त करता है
इसमें दुख दुख के कारण की खोज एवं उसके निदान की बात सन्नहित है
यह दो शब्द प्रतीत्य तथा समुत्पाद से मिलकर बना है
यहां पर प्रतीत्य से आशय "कारण" से है तथा समुत्पाद से आशय है "जो उत्पन्न होता है"
इस नियम के अनुसार कार्य की उत्पत्ति कारण पर ही आश्रित होकर हो सकती है
इस मत के कारण ही प्रतीत्यसमुत्पाद सिद्धांत को सापेक्ष कारणवाद भी कहा जाता है
7. कार्य कारण संबंध
बुद्ध संसार की प्रत्येक वस्तु और घटना के पीछे किसी ना किसी कारण का होना मानना स्वीकार करते हैं
उनके मतानुसार प्रत्येक घटना या स्थिति के कारण को पहले समझना और फिर उस से मुक्ति प्राप्त करने का उपाय किया जाना चाहिए
बौद्ध का कारणवाद ही उसे अन्य संप्रदायों से अलग करता है
बुद्ध के अनुसार जन्म मरण सकारण है
जन्म के कारण जरा मरण है
कार्य कारण की श्रंखला से यह संसार गतिमान रहता है इसके लिए किसी ईश्वर या सत्ता आवश्यकता नहीं पड़ती है
क्षणिक वाद उत्तर कालीन बौद्द दर्शनिकों का विचार है । वे कहते हैं कि क्षणिकवाद बुद्ध के दर्शन पर आधारित हैं ।
एक क्षण से अधिक कोई वस्तु नहीं रहती हैं
सभी पदार्थ , सभी घटनाएँ, और सभी अनुभूतियाँ एक क्षण के लिए होती हैं
इस के मूल मे बुद्द का "अर्थ क्रिया कार्यत्व " का विचार हैं जो प्रतीत्य समुत्पाद के सिद्धान्त के अंतर्गत उल्लेखित हैं
वस्तु की उत्पत्ति, स्थिति तथा विनाश तीनों एक ही क्षण में हो जाता है अतः वस्तुए क्षणभंगुर है.
महात्मा बुद्ध ने आत्मवलंबन को अधिक महत्व दिया है
आत्मवलंबन से प्रेरित व्यक्ति सभी पर समान रूप से करुणा बिखेरता हैं
महात्मा बुद्ध ने मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य विधाता माना है उनका कहना था कि मनुष्य अपने ही प्रयत्नों से दुखों की छुटकारा प्राप्त कर सकता है इसके लिए ईश्वर की कृपा की आवश्यकता नहीं पड़ती है
No comments:
Post a Comment