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Sunday, August 12, 2018

वैदिक सभ्यता (Part-2)- ऋग्वैदिक जीवन

ऋग्वैदिक काल की सामाजिक स्थिति
ऋग्वेदिक काल 


 सामाजिक संगठन का आधार = जन्म या गोत्र 

समाज की सबसे छोटी और आधारभूत इकाई = परिवार या कुल 

परिवार का मुखिया = पिता होता था उसे कुलप कहा जाता था 

समाज पितृसत्तात्मक था फिर भी महिलाओं को उचित सम्मान था 


ऋग्वैदिक काल का सामाजिक जीवन (Social Life of Rig Vedic Era)


संयुक्त परिवार प्रचलित था 

नप्तृ =  दादा, नानी, नानी,और पोते  के लिए प्रयुक्त एक शब्द का 

वर्ण व्यवस्था = ऋग्वेद के 10वे पुरुष सूक्त के अनुसार, विराट पुरुष के मुख से ब्राह्मण, भुजाओं से क्षत्रिय, जांघों से वैश्य और पैरो से शूद्र उत्पन्न हुए हैं


ऋग्वेद के अनुसार वर्ण व्यवस्था 



स्त्रियाँ अपने पतियों के साथ यज्ञ में भाग लेती थी 

बाल विवाह, सती प्रथा, एवं पर्दा प्रथा का प्रचलन नहीं था, विधवा विवाह का प्रचलन था 

पुत्रियों का उपनयन संस्कार किया जाता था 

एक पत्नीत्व विवाह ही प्रचलित था 

दहेज जैसी कुप्रथा का प्रचलन नहीं था किंतु वहतू शब्द कन्या को दिए गए उपहार का घोतक था 


ऋग्वेद मे दहेज प्रथा प्रचलित नहीं थी 


शिक्षा के द्वार स्त्रियों के लिए भी खुले हुए थे 

ऋग्वेद में लोपामुद्रा, घोषा, सिकता एवं विश्वधारा जैसी विदुषी कन्यायों का उल्लेख हैं 



No Marriage by Girl, अमाजू

अमाजू =  आजीवन अविवाहित रहने वाली कन्या 



नियोग की प्रथा = पुत्र प्राप्ति के महिला को अपने देवर के साथ साहचर्य स्थापित करना पड़ता था 

दास प्रथा का प्रचलन था 


Slave Labour , दास 

आर्य मांसाहारी व शाकाहारी भोजन करते थे, सोम व सुरा का प्रचलन था 

आर्यों के वस्त्र सूत, ऊन, व चर्म के बने होते थे 

दो प्रकार के विवाह प्रचलित थे -  


ऋग्वेदिक काल के विवाह 


अनुलोम विवाह = उच्च वर्ग का पुरुष व निम्न वर्ग की स्त्री 
प्रतिलोम विवाह = उच्च वर्ग की स्त्री व निम्न वर्ग का पुरुष 

पेशस = नर्तकी द्वारा पहना हुआ विशिष्ट परिधान 

ऋग्वेदिक नर्तकी 

कान में कर्णशोधन एवं शीश पर कूम्ब नामक आभूषण पहना जाता था 

खादी, रुक्म, भुजबंद,  केयूर, नूपुर, कंकड़ एवं मुद्रिका आदि आभूषण भी धारण किये जाते थे

भिषज = ऋग्वेद में वैद्य का एक नाम , इसको अश्विन देवता भी कहा जाता था 

क्षमा (तपेदिक) का उल्लेख अनेक स्थल पर हुआ है 

मृतको को अग्नि में जलाया जाता था लेकिन कभी-कभी दफनाया जाता था

राजनीतिक स्थिति 

ऋग्वेदिक समाज कबीलाई व्यवस्था पर आधारित था, ये लोग जनों व कबीलों में विभाजित थे

कबीलों का एक राजा होता था जिसे गोप कहा जाता था

आर्यों को पंचजन भी कहा जाता है क्योंकि इनके पाँच कबीले थे

- अनु, द्रहु, पुरू, तुर्वस, तथा यदु 

ऋग्वेद काल की व्यवस्था 




 आर्यों की प्रशासनिक इकाइयां पाँच हिस्सों में बंटी थी:

ऋग्वेदिक काल की प्रशासनिक व्यवस्था 


राजतंत्रात्मक व गणतंत्रात्मक दोनों व्यवस्था मौजूद थी

राजा का कार्य राज्य की रक्षा करना था

जनतांत्रिक संस्थाएं = सभा, समिति और विदथ 


ऋग्वेद्क काल की राजा की व्यवस्था 



भूमि का स्वामित्व जनता में निहित थे इसलिए राजा भूमि का स्वामी नहीं होता था 

बलि = एक प्रकार का कर जो प्रजा द्वारा स्वेच्छा से राजा को दिया जाता था राजा इसके बदले उनकी सुरक्षा की जिम्मेदारी लेता था 

राजा की कोई स्थाई सेना नहीं थी लेकिन युद्ध के समय में नागरिक सेना संगठित कर सकता था जिसका कार्य संचालन व्रात, गण, ग्राम और सर्ध नाम से विविध टोलियाँ करती थी 


आर्थिक स्थिति 

आर्यों की संस्कृति ग्रामीण एवं कबीलाई थी 

पशुपालन प्राथमिक पेशा था और कृषि द्वितीयक 

गाय को पवित्र वस्तु बन जाता था जो विनिमय साधन के रूप में प्रयोग किया जाता था 


ऋग्वेद काल में गाय एक पवित्र वस्तु थी 


अधिकांश लड़ाइयां गाय को लेकर होती थी हैं 

गाय को अष्टकर्णी   कहा गया हैजो उसके ऊपर स्वामित्व का प्रतीक हैं 

गविस्टि  = इसका मतलब हैं कि गाय महत्वपूर्ण हैं 

गाय को अघन्या माना जाता था अर्थात न मारे जाने वाला पशु 


गाय हत्या पाप था 

गाय की हत्या करने वाले को या उस को घायल करने वाले को वेदों में मृत्यु दण्ड या देश निकाल देने की व्यवस्था थी

पणि  = व्यापारी जो पशुओं की चोरी के लिए कुख्यात थे 

पुत्री गाय का दूध गुहा दुहती थी, इसलिए पुत्री को दुहिता कहा जाता था  

कृषि संबंधी तीन ही शब्द हैं = उर्दर, धान्य, संपत्ति 

धान्य = अनाज 

उर्दर = अनाज मापने का वर्तन 

ऋग्वेद के चतुर्थ मण्डल में एक ही अनाज जौ (यव) का उल्लेख हैं 

पणि लोगों का व्यापार पर अधिकार था 

वस्तु विनमय से व्यापार किया जाता था 

विनिमय के माध्यम = गायों व घोड़ा सहित निष्क 

निष्क = स्वर्ण आभूषण या सोने का टुकड़ा 


सोने का टुकड़ा या निष्क 


वेकनाट = सूदखोर ,जो बहुत अधिक ब्याज लेते थे 

ऋग्वेद में बढ़ई, रथकार, बुनकर, चर्मकार, कुम्हार आदि शिल्पियों का उल्लेख मिलता है 

सोना के लिए हिरण्य शब्द का उल्लेख मिलता है 

कपास का उल्लेख कहीं नहीं किया गया है

अष्टकर्णी नाम से यह मालूम होता हैं कि ऋग्वेदिक आर्यों को अंकों की जानकारी थी 

अयस - इस काल में प्रयोग हुआ है जिसकी पहचान  तांबे या कांसे  के रूप में की गई है 

इस काल के लोग लोहे से परिचित नहीं थे 

धार्मिक स्थिति 

धार्मिक कर्मकांड का उद्देश्य की भौतिक सुखों की प्राप्ति करना होता था 

बहुदेववादी के साथ एकेश्वरदेव में विश्वास करते थे 

सभी देवता प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक होते थे 

प्रकृति के प्रतिनिधि के रूप में देवताओं की तीन श्रेणियों थीं 

1.  आकाश के देवता = सूर्य, धौंस , वरुण, मित्र, पूषन, विष्णु, सविता, आदित्य,उषा, अश्विन आदि 
2. अंतरिक्ष के देवता = इंद्र, रुद्र, मरुत, वायु, पर्जन्य, यम, प्रजापति आदि 
3. पृथ्वी के देवता = अग्नि, सोम, पृथ्वी, बृहस्पति, सरस्वती आदि 

इंद्र = पुरून्दर कहा गया हैं , ऋग्वेद के 250 सूक्त इन्द्र को समर्पित है 
      = इंद्र युद्ध का देवता 
      = वर्षा, आंधी, तूफान का देवता 
      = सर्वाधिक महत्वपूर्ण देवता थे 

अग्नि = दूसरे महत्वपूर्ण देवता 
       = ऋग्वेद में 200 सूक्त
       = मनुष्य और देवताओं के बीच मध्यस्था करने के कार्य 

वरुण = तीसरे प्रमुख देवता 
        = ऋग्वेद में 30 सूक्त
        = जलनिधि का प्रतिनिधित्व 
        = वरुण को ऋतस्यगोपा कहा गया है 


ऋग्वेदिक काल के देवता (इन्द्र, अग्नि और वरुण)



गायत्री मंत्र = सविता देवता को समर्पित है 
               = इसका उल्लेख ऋग्वेद के तीसरे मंडल में है 
               =  रचनाकार विश्वामित्र है 


Gaytri Mantra गायत्री मंत्र 


Saraswati Devi, सरस्वती देवी 

सोम = पेय पदार्थ का देवता
       = इसका उल्लेख ऋग्वेद के नौवें मंडल में 
       =  रचनाकार विश्वामित्र है 

धौंस = ऋग्वेदिक कालीन देवताओं में सबसे प्राचीन 

सरस्वती = नदी की देवी थी 
            = बाद में विद्या की देवी हो गई 

पूषण     =  पशुओं के देवता
            = जो उत्तर वैदिक काल में शूद्रों के देवता हो गए



रूद्र      =  अनैतिक आचरण से सम्बद्ध 
            =  चिकित्सा के संरक्षक थे
            = यूनानी देवता अपोलो के समान
            =  कभी-कभी शिव और कल्याणकर कहा जाता था 



ऋग्वेद काल के रुद्र देव 

अरण्यानी    =  जंगल की देवी 
     
ऋग्वेदिक काल में मूर्तियों की पूजा का उल्लेख नहीं मिलता है 

उपासना का उद्देश्य भौतिक सुखों की प्राप्ति था, उपासना की विधि प्रार्थना तथा यज्ञ थी 

ऋग्वेद के प्रथम और दसवें मण्डल की रचना सबसे बाद में की गयी थी 

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