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Saturday, October 27, 2018

जैन धर्म : संप्रदाय विभाजन

महावीर 



संप्रदाय 


जैन धर्म की दो मुख्य शाखाएँ है - दिगम्बर और श्वेतांबर। 

दिगम्बर संघ में साधु नग्न (दिगम्बर) रहते है और श्वेतांबर संघ के साधु श्वेत वस्त्र धारण करते है। 

इसी मुख्य विभन्ता के कारण यह दो संघ बने।

तीर्थंकर महावीर के समय तक अविछिन्न रही जैन परंपरा ईसा की तीसरी सदी में दो भागों में विभक्त हो गयी : दिगंबर और श्वेताम्बर। 

मुनि प्रमाणसागर जी ने जैनों के इस विभाजन पर अपनी रचना 'जैनधर्म और दर्शन' में विस्तार से लिखा है कि आचार्य भद्रबाहु ने अपने ज्ञान के बल पर जान लिया था कि उत्तर भारत में १२ वर्ष का भयंकर अकाल पड़ने वाला है इसलिए उन्होंने सभी साधुओं को निर्देश दिया कि इस भयानक अकाल से बचने के लिए दक्षिण भारत की ओर विहार करना चाहिए। 

आचार्य भद्रबाहु के साथ हजारों जैन मुनि (निर्ग्रन्थ) दक्षिण की ओर वर्तमान के तमिलनाडु और कर्नाटक की ओर प्रस्थान कर गए और अपनी साधना में लगे रहे। परन्तु कुछ जैन साधु उत्तर भारत में ही रुक गए थे। अकाल के कारण यहाँ रुके हुए साधुओं का निर्वाह आगमानुरूप नहीं हो पा रहा था इसलिए उन्होंने अपनी कई क्रियाएँ शिथिल कर लीं, जैसे कटि वस्त्र धारण करना, ७ घरों से भिक्षा ग्रहण करना, १४ उपकरण साथ में रखना आदि। 

१२ वर्ष बाद दक्षिण से लौट कर आये साधुओं ने ये सब देखा तो उन्होंने यहाँ रह रहे साधुओं को समझाया कि आप लोग पुनः तीर्थंकर महावीर की परम्परा को अपना लें पर साधु राजी नहीं हुए और तब जैन धर्म में दिगंबर और श्वेताम्बर दो सम्प्रदाय बन गए।

दिगम्बर


दिगम्बर साधु (निर्ग्रन्थ) वस्त्र नहीं पहनते है, नग्न रहते हैं और साध्वियां श्वेत वस्त्र धारण करती हैं। दिगम्बर मत में तीर्थकरों की प्रतिमाएँ पूर्ण नग्न बनायी जाती हैं और उनका श्रृंगार नहीं किया है। दिगंबर समुदाय तीन भागों विभक्त हैं।
  • तारणपंथ
  • तेरापंथ
  • बीसपंथ

श्वेताम्बर

श्वेताम्बर एवं साध्वियाँ और संन्यासी श्वेत वस्त्र पहनते हैं, तीर्थकरों की प्रतिमाएँ प्रतिमा पर धातु की आंख, कुंडल सहित बनायी जाती हैं और उनका शृंगार किया जाता है।
श्वेताम्बर भी दो भाग मे विभक्त है:
  1. देरावासी - यॆ तीर्थकरों की प्रतिमाएँ की पूजा करतॆ हैं.
  2. स्थानकवासी - ये मूर्ति पूजा नहीँ करते बल्कि साधु संतों को ही पूजते हैं।
स्थानकवासी के भी दो भाग हैं:-
  1. बाईस पंथी
  2. तेरा पंथी




जैन धर्म के पतन के कारण

जैन धर्म भारत-भूमि में जन्मा एक महत्त्वपूर्ण धर्म था। महावीर स्वामी के जीवन-काल में इस धर्म का अच्छा प्रचार-प्रसार हुआ। उनकी मृत्यु के बाद भी कुछ समय तक इसका प्रचार प्रसार होता रहा किन्तु कालान्तर में उसके अनुयायियों की संख्या सीमित होती गई। उसके इस पतन के कई कारण थे। 
इन कारणों में मुख्य संक्षेप में इस प्रकार हैं-

1. जैन धर्म की अवनति का एक प्रमुख कारण उसके द्वारा प्रतिपादित अहिंसा का अव्यवहारिक स्वरूप था। जिस रूप में अहिंसा के प्रतिपालन का विचार प्रस्तुत किया गया था। उसका पालन जनसाधारण के लिए नितान्त दुष्कर था। फलत: कृषि प्रधान भारतीय जनता जैन धर्म के प्रति उदासीन होने लगी। केवल नगर में रहने वाले व्यापारी वर्ग के लोग ही उसके प्रति आकर्षित रहे।

2. अहिंसा के अतिरिक्त जैन धर्म में कठोर तपस्या पर जोर दिया गया है। जैन धर्म में व्रत, काया-क्लेश, त्याग, अनशन, केशकुचंन तथा वस्त्र त्याग, अपरिग्रहण इत्यादि के अनुसरण पर जोर दिया गया है। किन्तु सामान्य गृहस्थ व्यक्ति को इस प्रकार का तपस्वी जीवन जीना सम्भव नहीं है। फलत: धीरे-धीरे लोगों की इस धर्म में रुचि घटती गई।

3. जैन धर्म के उत्कर्ष में तत्कालीन नरेशों का महत्त्वपूर्ण योगदान था किन्तु बाद में जैन धर्म को राजकीय आश्रय प्राप्त न हो सका। फलत: राजाश्रय से जैन धर्म के अनुयायियों की संख्या धीरे-धीरे घटने लगी।

4. किसी धर्म के प्रचार में उसके धर्म प्रचारकों की महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। जैन धर्म में बाद में अच्छे धर्म प्रचारकों का अभाव हो गया। फलत: जैन धर्म के प्रसार का मार्ग अवरुद्ध हो गया।

5. जैन धर्म की अवनति में जैन संघ के संगठनों की अपनी भूमिका थी। जैन संघों की संगठनात्मक व्यवस्था राजतंत्रात्मक थी। उसमें धर्माचार्यों और गणधरों का प्रमुख प्रभाव था। फलत: उसमें सामान्य सदस्यों की इच्छा की अवहेलना होती थी। इस कारण शनै: शनै: जनसाधारण की उसमें अभिरुचि कम होती गई।

6. तीर्थंकर महावीर ने जैन धर्म के द्वार समस्त जातियों और धमों के लिए खोल रखे थे किन्तु बाद में जैन धर्म में भेदभाव की भावना विकसित हो गई। फलत: जैन धर्म के प्रसार पर इसका भी विपरीत प्रभाव पड़ा।

7. ईसा की प्रारम्भिक शताब्दियों में वैदिक-पौराणिक ब्राह्मण धर्म ने अपनी कतिपय विकृतियों को दूर कर अपने में सुधार किया। शैव एवं वैष्णव धर्म के उन्नायकों ने बौद्ध एवं जैन धर्म के विरुद्ध जो अभियान चलाया, उसका भी इन धमों के प्रसार पर विपरीत प्रभाव पड़ा। दक्षिण भारत में पश्चिमी चालुक्य तथा चोल राजा शैव धर्म के प्रबल पक्षपोषक थे। फलत: उनकी नीतियाँ जैन धर्म के दक्षिण में प्रसार में बाधक बनीं।

जैन धर्म की भाषा एवं कला

प्रारम्भिक जैन आचार्यों ने भी संस्कृत भाषा को छोड़कर अर्द्धमागधी भाषा को अपनाया। आगे चलकर इसने उत्तर भारत में अपभ्रंश, गुजराती, राजस्थानी और पुरानी हिंदी के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उसी तरह दक्षिण भारत में तमिल, तेलगू, कन्नड़ और मराठी भाषा के विकास में जैन आचार्यों ने अपनी भूमिका निभाई।

प्रारंभ में जैनों ने स्तूपों का निर्माण किया। बाद में मूर्तिकला एवं मंदिरों का विकास हुआ। 

पटना के लोहानीपुर से प्राप्त जैन मूर्ति आरंभिक मूर्तियों में से एक है। 

कुषाण काल में मथुरा जैन कला का एक महत्वपूर्ण केन्द्र था। 

गुप्तकाल में जैन कला की मथुरा शैली उन्नत अवस्था में थी। मध्य भारत, उड़ीसा, गुजरात, राजस्थान आदि से अनेक जैन मन्दिर, मूर्तियाँ, गुहास्थापत्य आदि के उत्कृष्ट नमूने मिले हैं। 

उड़ीसा की उदयगिरि पहाड़ी में अनेक जैन गुफाएँ मिलती हैं। 

खजुराहो, सौराष्ट्र तथा राजस्थान में अनेक जैन मन्दिरों का अस्तित्व रहा है। 

राजस्थान में आबू पहाड़ पर वस्तुपाल एवं तेजपाल ने संगमरमर का दिलवाड़ा का जैन मन्दिर बनवाया। 

सौराष्ट्र में शत्रुजय की पहाड़ी पर अनेक जैन मन्दिर बनाये गए। इनमें आदिनाथ का मंदिर विख्यात है। 

झांसी के देवगढ़ और राजस्थान के ओसिया के अभिलेखों में शांतिनाथ और महावीर के जैन मंदिरों का उल्लेख है। 

जोधपुर के निकट रौनकपुर में भी एक जैन मन्दिर का अवशेष मिलता है। चित्तौड़ के किले में एक जैन स्तंभ (टावर) मिलता है। 

जैनों ने चित्रकला के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। पहली बार इन्होंने चित्रकला में तालपत्र का प्रयोग किया।

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