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जैन धर्म और बौद्द धर्म का एक तुलनात्मक अध्ययन |
छठी शताब्दी ईसा पूर्व में गंगा घाटी में जहाँ एक और विशाल सुसंगठित मगध साम्राज्य की नींव रखी जा रही थी तो दूसरी ओर नए धार्मिक सम्प्रदायों का उदय हो रहा था। जैन धर्म और बौद्ध धर्म इनमें प्रमुख रूप से शामिल थे। वैदिक कर्मकांडों के विरोध में उत्पन्न हुए इन दोनों धर्मों ने रूढ़िवादी और परम्परा वादी भारतीय समाज को एक नया स्वरुप प्रदान किया।
छठी सदी ईसा पूर्व में विकसित बौध्द तथा जैन धर्मों ने सामाजिक समानता , न्याय तथा स्वतन्त्रता का समर्थन किया । ये दोनों में वैदिक धर्म के सुधरे हुए स्वरुप थे । इन्होंने उपनिषद के चिन्तन का समर्थन किया। लगभग ढाई हजार वर्ष के बाद भी विश्व के अनेक देशों में भी ये अपने अस्तित्व को बचाए रखा है ।
छठी सदी ईसा पूर्व में महाजनपदों की कुल संख्या 16 बताई गई। मध्य गंगा घाटी क्षेत्र में उदित हुआ ' मगध ' साम्राज्य इन सोलह महाजनपदों में सर्वाधिक शक्तिशाली था। छठी शताब्दी ईसा पूर्व में हुए धार्मिक आन्दोलन का केन्द्र मगध ही था। जैन तथा बौद्ध धर्म की उत्पत्ति में मगध क्षेत्र का अभूतपूर्व योगदान रहा था।
उदय के कारण :
निम्न मिलखित कारण थे
1. वैदिक कर्मकांडों का विरोध
उत्तर वैदिक काल उतर्रार्ध से ही धार्मिक कर्मकांडों एवं पुरोहितों के प्रभुत्व के विरुद्द की भावना प्रकट होने लगी थी । इसका आरंभ उपनिषदों से हुआ । उपनिषदों ने इन सब कर्मकांडों , यज्ञ, एवं बलि को निरथक बताया । इन्होने वर्ण एवं धर्म की अपेक्षा कर्म को अहमियत दी । अध्यात्मवाद को कर्मकांडों से अधिक महत्वपूर्ण माना गया । उपनिषदों ने एक तरह से 6वी शताब्दी ईसा पूर्व मे जैन और बौद्द धर्म की पृष्ठभूमि तैयार कर दी थी ।
2. लौह तकनीकी की भूमिका
2. लौह तकनीकी की भूमिका
लौह उपकरणों के कृषि क्षेत्र में इस्तेमाल से कृषि उत्पादन मे वृद्दि हुई । इस कारण से कई व्यवसायों , व्यापार और नगरों का उदय हुआ । नवोदित वैश्य समाज ने वैदिक कर्मकांडों का विरोध किया , क्योंकि वैदिक धर्म मे सूदखोरी तथा महाजन व्यवस्था को अवैध बताया गया था । इसी कारण से इस वर्ग ने नए धर्मों के उदय में योगदान दिया ।
3. वर्ण व्यवस्था की जटिलता :
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था जटिल होती चली गयी । जन्म के आधार पर वर्ग का निर्णय होने से लोगों का नए धर्मों की ओर रुझान बढ़ा ।
4. धार्मिक कारण :
धार्मिक कार्यों के लिए पुरोहितों का प्रयोग अनिवार्य था। इस कारण से पुरोहितों के पास प्रचुर संपत्ति होने लगी और ये लोग विलासिता पूर्ण जीवन जीने लगे । ऐसी स्थिति में कर्मकांडो, धर्म और पुरोहितों के विरुद्द प्रतिक्रिया होने लगी । इस स्थिति में लोगों का नए धर्मों के ओर रुझान बढ़ा ।
महावीर स्वामी और जैन धर्म
जैन धर्म की स्थापना ऋषभ देव ने की थी परंतु इस धर्म का वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी को ही माना जाता था । सांसरिक व्यवस्था से दुखी होकर अपने अग्रज नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर 30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने गृह त्याग कर दिया था । 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद महावीर स्वामी को जृंभिक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे कैवल्य की प्राप्ति हुई ।
महावीर स्वामी का जीवन परिचय
जन्म : 540 ई पू कुंडग्राम (वैशाली)
पिता : सिद्धार्थ (ज्ञातृक कुल के प्रधान )
माता : त्रिशला (लिच्छवी गणराज्य के प्रधान चेटक के बहन)
पत्नी : यशोदा (कुण्डिन्य गोत्र की कन्या )
मृत्यु : 468 ई पू पावापुरी (नालंदा) में राजा हस्तिपाल के यहाँ )
महात्मा बुद्द और बौद्द धर्म
बौद्द धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्द थे। बुद्द का अर्थ प्रकाशमान अथवा जाग्रत होता हैं। गौतम बुद्द को जन्म के समय ही कौडिल्य नामक ब्राह्मण ने कहा था कि यह बालक चक्रवर्ती राजा या सन्यासी बनेगा।
बुद्द ने जीवन संबधी चार दृश्यों (वृद्द व्यक्ति, बीमार व्यक्ति, मृत व्यक्ति, और सन्यासी ) को देखकर 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया , जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता हैं । 6 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद बैशाख पूर्णिमा की एक रात पीपल वृक्ष के नीचे निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर उन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था, जिसे धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया ।
गौतम बुद्द का जीवन परिचय
जन्म : 563ई पू (लुम्बिनी)
पिता : शुद्धोधन (शाक्य कुल के प्रधान )
माता : माया देवी/महामाया (कोलिय गणराज्य की कन्या)
पत्नी : यशोधरा (अन्य नाम - गोपा, बिम्बा, भद्रकच्छा)
पुत्र : राहुल
प्रिय घोडा : कंथक (छन्न सारथी था )
मृत्यु : 483 ई पू पावापुरी (मल्लों की राजधानी कुशीनगर)
जैन धर्म और बौद्द धर्म की शिक्षाओं में अंतर
जैन धर्म और बौद्द धर्म के संप्रदायों का तुलनात्मक अध्ययन
जैन तथा बौद्द धर्म में समानता एवं असमानता
3. वर्ण व्यवस्था की जटिलता :
उत्तर वैदिक काल में वर्ण व्यवस्था जटिल होती चली गयी । जन्म के आधार पर वर्ग का निर्णय होने से लोगों का नए धर्मों की ओर रुझान बढ़ा ।
4. धार्मिक कारण :
धार्मिक कार्यों के लिए पुरोहितों का प्रयोग अनिवार्य था। इस कारण से पुरोहितों के पास प्रचुर संपत्ति होने लगी और ये लोग विलासिता पूर्ण जीवन जीने लगे । ऐसी स्थिति में कर्मकांडो, धर्म और पुरोहितों के विरुद्द प्रतिक्रिया होने लगी । इस स्थिति में लोगों का नए धर्मों के ओर रुझान बढ़ा ।
महावीर स्वामी और जैन धर्म
जैन धर्म की स्थापना ऋषभ देव ने की थी परंतु इस धर्म का वास्तविक संस्थापक महावीर स्वामी को ही माना जाता था । सांसरिक व्यवस्था से दुखी होकर अपने अग्रज नंदिवर्धन से आज्ञा लेकर 30 वर्ष की आयु में महावीर स्वामी ने गृह त्याग कर दिया था । 12 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद महावीर स्वामी को जृंभिक ग्राम में ऋजुपालिका नदी के किनारे साल वृक्ष के नीचे कैवल्य की प्राप्ति हुई ।
महावीर स्वामी का जीवन परिचय
जन्म : 540 ई पू कुंडग्राम (वैशाली)
पिता : सिद्धार्थ (ज्ञातृक कुल के प्रधान )
माता : त्रिशला (लिच्छवी गणराज्य के प्रधान चेटक के बहन)
पत्नी : यशोदा (कुण्डिन्य गोत्र की कन्या )
मृत्यु : 468 ई पू पावापुरी (नालंदा) में राजा हस्तिपाल के यहाँ )
महात्मा बुद्द और बौद्द धर्म
बौद्द धर्म के संस्थापक महात्मा बुद्द थे। बुद्द का अर्थ प्रकाशमान अथवा जाग्रत होता हैं। गौतम बुद्द को जन्म के समय ही कौडिल्य नामक ब्राह्मण ने कहा था कि यह बालक चक्रवर्ती राजा या सन्यासी बनेगा।
बुद्द ने जीवन संबधी चार दृश्यों (वृद्द व्यक्ति, बीमार व्यक्ति, मृत व्यक्ति, और सन्यासी ) को देखकर 29 वर्ष की आयु में गृह त्याग दिया , जिसे महाभिनिष्क्रमण कहा जाता हैं । 6 वर्ष की कठोर तपस्या के बाद बैशाख पूर्णिमा की एक रात पीपल वृक्ष के नीचे निरंजना (पुनपुन) नदी के तट पर उन्हे ज्ञान प्राप्त हुआ। उन्होने अपना पहला उपदेश सारनाथ में दिया था, जिसे धर्मचक्रप्रवर्तन कहा गया ।
गौतम बुद्द का जीवन परिचय
जन्म : 563ई पू (लुम्बिनी)
पिता : शुद्धोधन (शाक्य कुल के प्रधान )
माता : माया देवी/महामाया (कोलिय गणराज्य की कन्या)
पत्नी : यशोधरा (अन्य नाम - गोपा, बिम्बा, भद्रकच्छा)
पुत्र : राहुल
प्रिय घोडा : कंथक (छन्न सारथी था )
मृत्यु : 483 ई पू पावापुरी (मल्लों की राजधानी कुशीनगर)
जैन धर्म और बौद्द धर्म की शिक्षाओं में अंतर
जैन धर्म की मुख्य शिक्षा
|
बौद्द धर्म की मुख्य शिक्षा
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जैन धर्म में संसार को दुख मूलक माना गया हैं। मनुष्य जरा-वृद्दावस्था
तथा मृत्यु से ग्रसित हैं। सांसारिक जीवन की तृष्णाएं व्यक्ति को घेरे रहती हैं।
यही दुख का मूल कारण हैं।
जैन दर्शन के अनुसार सृष्टि की रचना एवं पालन पोषण सार्वभौमिक
विधान से हुआ हैं। सृष्टिकर्ता के रूप में ईश्वर के अस्तित्व को स्वीकार नहीं किया
गया हैं।
कर्मफल से छुटकारा पाकर ही व्यक्ति निर्वाण की ओर अग्रसर होता
हैं। इसके लिए उसके पूर्वजन्म के संचित कर्मों को समाप्त करना और वर्तमान जीवन में
कर्मफल से विमुख रहना आवश्यक हैं।
कर्मफल से मुक्ति के लिए त्रिरत्न (सम्यक दर्शन, सम्यक
ज्ञान, सम्यक आचरण)
का अनुशीलन आवश्यक हैं।
सम्यक आचरण के पालन के संदर्भ में पाँच महाव्रतों (अहिंसा, अमृषा, अपरिग्रह, अस्तेय, और ब्रहचर्य)
का पालन आवश्यक हैं।
जैन मत के अनुसार विश्व शाश्वत हैं । इसका अस्तित्व असंख्य चक्रों में विभाजित हैं। जब जीव से कर्म का अवशेष बिलकुल खत्म हो जाता हैं तब कैवल्य (मोक्ष) की प्राप्ति होती हैं।
जैन धर्म में अहिंसा एवं काया क्लेश पर अत्यधिक बल दिया गया
हैं । काया क्लेश के अंतर्गत उपवास द्वारा प्राण त्याग का विधान हैं। इस पद्दती को
संलेखना कहा जाता हैं।
महावीर की मृत्यु के बाद जैन धर्म श्वेतांबर तथा दिगंबर में विभाजित हो गया। |
बौद्द धर्म के अनुसार सृष्टि दुखमय, क्षणिक, एवं आत्माविहीन हैं। वे कर्म एवं पुनर्जन्म में विश्वास करते हैं। तथा ईश्वर
एवं अपौरुषेय वेद की सत्ता को अस्वीकार करते हैं।
बौद्द दर्शन के अनुसार मानव शरीर भौतिक, तथ मानसिक
तत्वों के पाच स्कंधों रूप – संज्ञा, वेदना, विज्ञान, एवं संस्कार से निर्मित हैं।
चार आर्य सत्य बौद्द धर्म के मूल सिद्दांत हैं- दुख, दुख का
कारण है, दुख का निदान है और दुख निदान के उपाय हैं।
बौद्द धर्म के त्रिरत्न हैं – बुद्द , संघ और
धम्म। बौद्द दर्शन के अनुसार यह सृष्टि विभिन्न चक्रों में विभाजित है। इसमें एक
बुद्द चक्र, तो दूसरा शून्य चक्र होता हैं।
मध्यमा प्रतिपदा या मध्यम मार्ग के आठ सौपानों को अष्टांगिक मार्ग कहते हैं
। यह धर्मचक्रप्रवर्तन की विषय वस्तु का अंग है। अष्टांगिक मार्ग को भिक्षुओं का
कल्याण मित्र कहा गया हैं।
प्रतीत्य समुत्पाद बुद्द के उपदेशों का सार एवं उनकी सम्पूर्ण शिक्षाओं का आधार स्तम्भ हैं। इसमें ही अन्य सिद्दांत; जैसे –क्षणभंगवाद तथा नैरात्मवाद आदि समाहित हैं।
दस शीलों का अनुशीलन नैतिक जीवन का आधार हैं। इन दस शीलों
को शिक्षापद कहा गया हैं।
बौद्द धर्म में प्रवेश को उप सम्पदा कहा गया हैं। संघ में
प्रस्ताव को नति कहा गया हैं।
किसी पवित्र अवसर पर भिक्षुओं के एकत्र होकर चर्चा करने को उपोसठ कहा जाता था। कालांतर में बौद्द धर्म का विभाजन हीनयान तथा महायान में हो गया। |
जैन धर्म और बौद्द धर्म के संप्रदायों का तुलनात्मक अध्ययन
जैन धर्म
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बौद्द धर्म
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श्वेतांबर
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दिगंबर
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हीनयान
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महायान
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मोक्ष प्राप्ति के लिए वस्त्र त्यागना आवश्यक नहीं हैं।
स्त्रियाँ निर्वाण की अधिकारी होती हैं।
कैवल्य प्राप्ति के बाद भी लोगों को भोजन की आवश्यकता होती
हैं
इसके अनुसार महावीर विवाहित थे।
19वे तीर्थकर मल्लिनाथ स्त्री थे।
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मोक्ष प्राप्ति के लिए वस्त्र त्यागना आवश्यक हैं।
स्त्रियाँ को निर्वाण संभव नहीं हैं।
कैवल्य प्राप्ति के बाद भी लोगों को भोजन की आवश्यकता नहीं
होती हैं
इसके अनुसार महावीर अविवाहित थे।
19वे तीर्थकर मल्लिनाथ पुरुष थे।
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बुद्द एक महापुरुष हैं।
व्यक्तिवादी धर्म, सभी को अपने प्रयत्नों से मोक्ष प्राप्त करना
चाहिए।
मूर्ति पूजा एवं भक्ति में विश्वास नहीं।
साधन पददती अत्यंत कठोर, भिक्षु जीवन का हिमायती।
आदर्श ‘अर्हत’ पद को प्राप्त
करना।
साहित्य पाली भाषा मे रचित।
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बुद्द एक देवता हैं
परसेवा तथा परोपकार पर बल, उद्देश्य समस्त मानव जाति
का कल्याण।
मूर्ति पूजा का विधान, मोक्ष प्राप्ति के लिए बुद्द
की कृपा।
सिद्दांत सरल एवं सुलभ, भिक्षुओं तथा उपासकों को भी
महत्व।
आदर्श बोधिसत्व हैं।
साहित्य संस्कृत भाषा में रचित
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जैन तथा बौद्द धर्म में समानता एवं असमानता
समानता
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असमानता
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दोनों धर्मों के संस्थापक क्षत्रिय कुल के थे।
दोनों धर्मों ने ब्राह्मणवादी संस्कार, वेदों
की प्रामाणिकता, यज्ञ, तथा ईश्वर के
अस्तित्व को अस्वीकार कर दिया था।
दोनों ने कर्म एवं पुनर्जन्म की अवधारणा को स्वीकार किया।
दोनों धर्मों ने जन सामान्य की भाषा (पालि,
प्राकृत) का प्रयोग अपने उपदेशों में किया था।
जाति प्रथा एवं स्त्री पुरुष असमानता की निंदा की।
शूद्रों एवं महिलायों द्वारा मोक्ष प्राप्ति की संभावना को स्वीकार किया।
दोनों धर्मों में संगीति के आयोजन की परंपरा थी।
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जैन धर्म आत्मा में विश्वास करता हैं जबकि बौद्द धर्म
अनात्मवादी हैं।
जैन धर्म कर्म को एक भौतिक तत्व के रूप में मानता हैं, जबकि बौद्द इच्छा से किए
हुए कार्य को कर्म कहता हैं।
बौद्दों के अनुसार निर्वाण इसी जीवन में संभव हैं जबकि
जैनियों के अनुसार निर्वाण शरीर मुक्ति पश्चात ही संभव हैं।
जैनियों ने साधारण जन को अपनी व्यवस्था में मुख्य स्थान दिया
जबकि बौद्द संघ प्रणाली पर निर्भर रहे।
गौतम बुद्द ने मध्यम मार्ग का उपदेश दिया। वे मोक्ष के लिए
कठोर साधना एवं कायाक्लेश में विश्वास नहीं करते थे जबकि महावीर स्वामी ने कठोर साधना, अहिंसा
और अपरिग्रह पर बल दिया।
जैन धर्म में दो संगीति (पाटलीपुत्र, वल्लभी)
तथा बौद्द धर्म में चार (राजग्रह, वैशाली, पाटलिपुत्र, कुडलपुत्र पुत्र) संगीतियों का आयोजन
हुआ।
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Very nice description
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