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Saturday, April 13, 2019

गुप्त साम्राज्य, शासन, समाज, धर्म और कला व साहित्य(Part-1)

गुप्त साम्राज्य, शासन, समाज, धर्म और कला व साहित्य


गुप्त वंश 



प्रशासन पद्धति

गुप्त राजाओं ने परमेश्वर, महराजाधिराज, परमभट्टारक आदि आडंबर पूर्ण उपाधियाँ धारण की। उन्होने अपने साम्राज्य के छोटे छोटे राजाओं पर शासन किया। राजपद वंशागत था। राजगद्दी हमेशा ज्येष्ट पुत्र को नहीं मिलती थी। इससे अनिश्चिता की स्थिति होती थी और जिसका लाभ सामंत और उच्चाधिकारी उठा सकते थे। 


गुप्त राजाओं ने ब्राह्मणों ने उदारतापूर्वक दान दिये। राजा की तुलना देवताओं से की जाती थी। राजा को विष्णु के रूप में माना जाता था जिसको रक्षा और पालन कर्ता के रूप में माना जाता था।

देवी लक्ष्मी >> विष्णु की पत्नी >> सिक्को पर अंकित होती थी

Gupta's Coins

इनकी एक स्थायी सेना थी। अश्वचलित रथ का उपयोग नहीं होता था। घुड़सवारों की महत्ता बढ़ गयी थी। घोड़ो पर सवार होकर तीर चलाना एक अच्छा रण कौशल था ।
Gupta's Army

जब भी सेना किसी गाँव से गुजरती थी तो उसे खिलाना पिलाना स्थानीय प्रजा का कर्तव्य होता था। ग्रामीण क्षेत्रों के अधिकारी अपने निर्वाह के लिए किसानों से पशु, अन्न, खाट आदि वस्तुएं लेते थे। 

न्याय पद्धति:

अधिक विकसित थी >> अनेक विधि ग्रंथ संकलित किए गए । 

पहली बार दीवानी और फ़ौजदारी कानून परिभाषित और प्रथक्कृत हुए। 


दीवानी = व्यवहार विधि , संपत्ति संबंधी कानून दीवानी में आए

फ़ौजदारी = दंड विधि, चोरी व व्यभिचार फ़ौजदारी कानून में आए

उत्तराधिकार के बारे में विस्तृत नियम निर्धारित किए

नियमों का आधार वर्णभेद ही रहा । नियम कानून बनाए रखना राजा का कर्तव्य था >> न्याय ब्राह्मणों की सहायता से किया जाता था। शिल्पी, वणिक आदि संगठनों पर अपने ही नियम लागू होते थे । 

अधिकारी वर्ग:

कामन्दक (नीतिसार) एवं कालीदास के अनुसार मंत्रिमंडल या मंत्रिपरिषद होती थी। मंत्रियों का चयन सम्राट द्वारा उनकी व्यक्तिगत योग्यता के अनुसार होता था जिनको राजकुमारो, सामंतों तथा उच्च अधिकारियों में से किया जाता था।

मंत्रियों के लिए सचिव तथा मंत्रित शब्द का प्रयोग किया जाता था।

हरिषेण (समुद्रगुप्त का संधिविग्रहिक), वीरसेन(चन्द्रगुप्त-2 का संधिविग्रहिक), शिखरस्वामी (चन्द्रगुप्त-2  का मंत्री), पृथ्वीषेण (कुमारगुप्त का मंत्री), चक्रपालित (स्कंदगुप्त का मंत्री) एवं पर्णदत्त (स्कंदगुप्त का मंत्री) गुप्तकाल के प्रमुख अधिकारी थे।

अधिकारी वर्ग मौर्यो जितना बड़ा नहीं था 

सबसे बड़ा अधिकारी => कुमारामात्य >> उन्हे राजा उनके अपने प्रांत में ही नियुक्त करता था >> नगद वेतन पाते थे

उच्च पदों पर नियुक्ति उच्च वर्णो तक सीमित नहीं थी पर अनेक पदों का प्रभार एक ही व्यक्ति के हाथ में सौपा जाने लगा और पद वंशागत हो गए । 

प्रांतीय और स्थानीय शासन की पद्धति चलाई। 

राज्य  >> भुक्तियों (प्रांत) में (उपरिक के प्रभार में) >> विषयों (जिले) में (विषयपति के प्रभार में) >>  वीथियों में >> पेठ में (अनेक ग्रामों का समूह) >> ग्रामों में (मुखिया के प्रभार में) बांटा गया था

सीमांत प्रदेश के प्रशासक को गोप्ता कहा जाता था। 

जिले के अन्य अधिकारी 

शौल्किक (सीमा शुल्क एवं चुंगी संग्रहकर्ता), 

गौमिल्क (वन और दुर्ग अधिकारी), 

ध्रुवाधिकरण (भूमिकर अधिकारी), 

पुस्तपाल(रेकॉर्ड रखने वाला) 

गाँव का मुखिया (महत्तर या ग्राम वृद्द): 

सबसे महत्वपूर्ण >> ग्रामश्रेष्ठों की सहायत से गाँव का काम काज देखता था

प्रमुख स्थानीय लोग ग्रामों और छोटे छोटे शहरों के प्रशासन से जुड़े हुए थे जिनकी अनुमति के बिना जमीन की बिक्री नहीं हो सकती थी

नगर के प्रशासन में व्यवासियों की अच्छी भागीदारी होती थी >> भूमि के अनुदान या खरीद और बिक्री में उनकी संपत्ति आवश्यक मानी जाती थी । शिल्पियों और वणिकों के अलग अलग संगठन होते थे।

नगर प्रशासन के अधिकारी को पुरपाल, नगर रक्षक या द्रांगिक कहा जाता था। नगर परिषद के प्रमुख  को नगरपाती कहा जाता था। 

मालवा: मंदसौर और इंदौर में रेशम बुनकरों की अपनी खास श्रेणियाँ थी

पश्चिमी उत्तर प्रदेश: बुलंदशहर में तेलियों की अपनी श्रेणियाँ थी

यह श्रेणियाँ अपने सदस्यों के मामले देखती थी >> श्रेणी के नियम, कानून और परंपरा का उलंघन करने वाले को सजा दे सकती थी

यह प्रशासन पद्धति केवल उत्तरी बंगाल, बिहार और उत्तर प्रदेश में, तथा मध्य प्रदेश की कुछ भागो में ही लागू थी जहां गुप्त राजा अपने अधिकारियों की सहायता से प्रत्यक्ष शासन देखते थे

समराजयों के अधिकतर भाग सामंतों या मंडलेश्वर के हाथ में थी, जिनमे से अनेकों को समुद्रगुप्त ने अपने अधीन कर लिया था


सामंत तीन ज़िम्मेदारी पूरी करते थे :
1.   सम्राट के दरबार में उपस्थित होकर सम्मान निवेदन करते थे
2.   नजराना चढ़ाते थे
3.   विवाह के लिए अपनी पुत्री समर्पित करते थे

इसके बदले राजा उनको उनके अधिकार का शासन पत्र (सनद) मिलता था

गरुड छपवाली राजकीय मुहर जिन शासन पत्रों पर है >> सामंतों के द्वारा जारी किए होते थे >> कई राजाओं की अधीनता के कारण वे सामंत बन गए थे

पुरोहितों और प्रशासकों को ग्राम अनुदान के द्वारा कर ग्रहण और शासन करने की रियायत दी जाती थी >> इससे सामंत तंत्र को बल मिला


भूमिदान प्रथा

आरंभ सातवाहन राजाओ ने किया >> गुप्त काल मे (खाकर मध्य प्रदेश में) यह सामान्य परिपाटी बन गयी >> पुरोहितों और अन्य धर्माचार्यों को कर मुक्त भूमि दान में दी जाती थी >> सभी कर उगाहने का अधिकार दिया जाता था जो राजकोष में जाते थे >> जो ग्राम दे दिये जाते थे उनमे राजा के अधिकारियों और अमलों को प्रवेश करने का अधिकार नहीं >> अनुदानभोगी वहाँ के अपराधकर्मियों को सजा भी दे सकता था

अधिकारियों को भुगतान जमीन देकर किया जाता था (यह स्पष्ट नहीं है)

ऊंचे अधिकारियों को नकद वेतन दिया जाता था >> कुछ को भूमि देकर भुगतान किया जाता था

अधिकतर कार्य सामंतों और अनुदानभोगी द्वारा पूरे हो जाते थे >> मौर्य राज्य की भांति गुप्त राज्य बड़े पैमाने पर आर्थिक कार्यकलाप में संलग्न नहीं था >> ग्राम और नगर प्रशासन में शिल्पयों, वाणिकों, श्रेष्ठियों आदि के भाग लेते थे >> इसलिए मौर्यो के भांति अधिक अधिकारी वर्ग रखने की आवश्यकता नहीं थी  

मौर्यों की भांति लंबा चौड़ा प्रशासन तंत्र नहीं था और न ही उनकी आवश्यकता थी >> पर राजनीतिक प्रणाली सामंती थी। 



व्यापार और कृषिमूलक अर्थव्यवस्था

आर्थिक जीवन का कुछ वर्णन चीनी बौद्द यात्री फा-हियान द्वारा किया गया हैं >> मगध नगरो और धनवानों से परिपूर्ण थे , धनी लोग बौद्द धर्म का संपोषण करते थे और उसके लिए दान देते थे

भू कर बढ़ गए थे >> वाणिज्य कर घटे  >> राज्य उपज का ¼ से 1/6 तक कर होता था।
करो की अदायगी हिरण्य (नकद) तथा मेय ( अन्न) में की जाती थी।  इसके अतिरिक्त वणिकों एवं शिल्पियों पर राजकर लगाया जाता था। इन्हें कर के रूप में बेगार (विष्टि) देना पड़ता था।  

विष्टि : ग्रामवासियों से सरकारी सेना और अधिकारियों की सेवा के लिए निशुल्क श्रम (बेगार) कराया जाता था, इसे विष्टि कहते थे

अमरकोष में 12 प्रकार की भूमि का उल्लेख मिलता है। निवर्तन, कुल्यावाप , ड्रोनवाप तथा आढ़वाप भूमि माप का पैमाना था।

वास्तु (वास करने योग्य भूमि), क्षेत्र (खेती करने युक्त भूमि), खिल(नहीं जोती जाने वाली भूमि), अप्रहत (बिना जोती जंगल की भूमि) तथा औदक (दलदली भूमि) आदि भूमि के प्रकार थे। 

गुप्त साम्राज्य की स्वर्णमुद्राए = दीनार 

गुप्त शासकों ने सोने, चाँदी और तांबे के सिक्के चलाये।  सोने का सिक्का 144 ग्रेन का होता था। चाँदी के सिक्कों का उपयोग स्थानीय लेन देन में किया जाता था।

फ़ाहयान के अनुसार स्थानीय लेन देन में कौड़ी का उपयोग किया जाता था।

गुप्त शासको ने सबसे अधिक स्वर्ण मुद्राएं जारी की। इनके तांबे के सिक्के बहुत कम ही मिलते है। 

गुजरात की विजय के बाद गुप्त राजाओं ने बड़ी संख्या में चाँदी के सिक्के जारी किए >> केवल स्थानीय लेन देन के लिए उपयोग >> पश्चिमी क्षत्रोपों के यहाँ चाँदी के सिक्के का महतावपूर्ण स्थान था

तांबे के सिक्के बहुत ही कम इस्तेमाल होते थे

गुप्त काल में व्यापार में ह्रास दिखता है >> 550 तक रोम के साथ व्यापार था >> 550 ई के आस पास पूर्वी रोम के लोगों ने चीनियों से रेशम पैदा करने की कला सीख ली >> इससे व्यापार पर असर हुआ >> 6 वी सदी तक रेशम की मांग कम हो गयी >> 5 वी सदी के मध्य रेशम बुनकरों की एक श्रेणी पश्चिम भारत (मूल स्थान लाट) छोड़कर मंदोसर चली गयी >> वहाँ दूसरे व्यवसाय को अपनाया

गुप्त काल में (विशेषकर मध्य भारत में) ब्राह्मण पुरोहितों को भूमि दान दी जाने लगी >> अनुदान भोगी वर्ग >> जो स्थानीय जनजातीय किसानों के ऊपर लाद दिया गया था >> ब्राह्मण भूस्वामी के रूप में उदय हुए >> किसानों के हितों के विपरीत >> किसानों की हैसियत नीचे गिर गयी >> मध्य और पश्चिमी भारत में किसानों से बेगार लिया जाने लगा >> दूसरी ओर कुछ ने परती जमीन को आबाद कराया और खेती की अच्छी जानकारी प्रचलित की ।

शिल्पियों एवं व्यवसायियों के लिए निगम, श्रेणी और संघ होते थे, अपने व्यवसायों केअतिरिक्त ये श्रेणियाँ स्थानीय प्रशासन में भाग लेती थी, मुहर चलाती थी। सार्थवाह और श्रेस्ठी संघो का उल्लेख मिलता है।


सामाजिक गतिविधि

समाज चार वर्णों में विभक्त था। चार वर्णों का आधार गुण और धर्म न होकर जन्म था।

ग्राम अनुदान की वजह से ब्राह्मणों की श्रेष्ठता गुप्त काल मे बनी रही। ब्राह्मणों ने गुप्तों को क्षत्रिय माना जाबके वे मूलत: वैश्य थे।  

गुप्त राजाओं को देवताओं के तुल्य माना गया >> और वे ब्राह्मण प्रधान वर्णव्यवस्था के प्रतिपालक हो गए >> ब्राह्मणों ने खूब धन संचय किया

पाँचवी सदी में रचित नारद स्मृति >> ब्राह्मणों के अर्जित विशेषाधिकार गिनाए गए हैं

वर्ण अनेक जातियों में बंट गए >> क्योंकि विदेशो से आए हुए लोग भारतीय समाज में आकार घुल मिल गए >> विदेशी लोग विजेता भी थे >> इसलिए उनको क्षत्रिय स्थान मिला।

हूण लोगों को राजपूत के 36 कुलों में से एक कुल के हैं >> आज भी हूण जाति के राजपूत मिलते है ।

ग्राम अनुदान प्रक्रिया में अनेक जनजातीय लोग ब्राह्मण समाज में समा गए >> जनजातीय सरदार उच्च कुल के माने गए  किन्तु उनके सामान्य जनों को नीचे कुल का माना गया >> हर जन जाति एक न एक जाति के रूप में अवतीर्ण हुआ। 

शूद्रों की स्थति  सुधरी >> रामायण, महाभारत, और पुराण सुनने का अधिकार मिला >> अब कृष्ण की पूजा करने का अधिकार मिला >> संस्कारों व घरेलू अनुष्ठान का अधिकार मिल गया >> 7 वी सदी में कृषक के रूप में जाने गए >> जबकि पहले उनका चित्रण केवल अपने ऊपर के तीनों वर्णों वास्ते खटने वाले सेवक, दास और कृषि मजदूर के रूप में होता था ।

दास प्रथा का पचलन था। नारद ने 15 प्रकार के दासों का उल्लेख किया है।

अछूतो की संख्या में वृद्दि हुई >> खासतौर से चांडालों की संख्या में >> इनकी सख्या इतनी बढ़ गयी की फा-हियान की दृष्टि भी उन पर गयी >> उसने लिखा कि >> चांडाल गाँव के बाहर बसते थे >> जब कभी वे नगर में प्रवेश करते थे तो उच्च वर्ण उनसे दूर रहते थे >> क्योंकि वे मानते थे कि उनके स्पर्श से सड़क अपवित्र हो जाती है

गुप्त काल में स्त्रियॉं की दशा में पहले की अपेक्षा गिरावट आई। इसका प्रमुख कारण उपनयन संसकार का बंद होना, अल्पायु में विवाह होना, पर्दा प्रथा और सती प्रथा का प्रचलन था।

स्त्रियों को भी रामायण, महाभारत, और पुराण सुनने का अधिकार मिला >> उनके लिए कृष्ण का पूजन विहित किया गया। पहले स्त्रियों को स्वतंत्र जीवन निर्वाह का साधन प्राप्त नहीं था >> निचले दो वर्ण की स्त्रियाँ जीवन निर्वाह के लिए अर्जन कर सकती थी और इससे उनको स्वतंत्रता मिल गयी थी >> पर उच्च वर्णों के लिए एस कुछ नहीं था >> तर्क दिया गया की शूद्र और वैश्य स्त्रियाँ खेती का काम और घरेलू काम करती है इसलिए उन पर पति का आधिपत्य नहीं रहता है

गुप्त काल में उच्च वर्णो के लोगो में अधिक से अधिक संपत्ति और अधिक से अधिक पत्नी रखने की प्रवत्ति आई >> पित्रतंत्रत्मक व्यवस्था में अपनी पत्नी को अपनी संपत्ति समझने लगे >> यहाँ तक की पत्नी से मृत्यु में भी साथ देने की आशा देने लगे

पति के मरने पर उसकी पत्नी का पति की चिता में आत्मदाह करने का पहला अभिलेखीय उदाहरण गुप्तकाल में ही 510 ई में मिलता है

गुप्तोत्तर की कुछ स्मृतियों में कहा गया है कि पति खो जाए, मर जाए, सन्यास ले ले या पतित जाए तो स्त्री पुनर्विवाह कर सकती है

पत्नियाँ अपने पति पर जीवन निर्वाह के लिए आश्रित रहती थी इसल्ये उच्च वर्णो की स्त्रियाँ को स्वामित्वाधिकार का अधिकार नहीं था

स्त्रीधन : माता पिता के द्वारा वधू को दिया गया भूषण, अलंकरण, वस्त्र आदि >> गुप्त आउट गुप्तोत्तर काल मे यह दायरा बढ़ाया गया है >> वधू के माता पिता और सास ससुर से जो उसे उपहार मिलता है वह स्त्रीधन होता है

6वी सदी के स्मर्तिकार कात्यायन के अनुसार स्त्री अपने स्त्री धन के साथ अचल संपत्ति को बेच सकती है और गिरवी सकती थी पर भारत में धर्मशास्त्र के अनुसार बेटी को संपत्ति का उत्तराधिकार नहीं मिलता था 




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