राजनीतिक विचार और संगठन
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प्रारम्भिक मध्यकालीन भारत (750-1200 ई): तीन साम्राज्य का युग-Part-4: राजनीतिक विचार और संगठन |
प्रशासन व्यवस्था गुप्त साम्राज्य , हर्ष के राज्य व चालुक्यों के आचार विचार पर आधारित थी। लगभग हर राज्य में पत्राचार से संबधित एक मंत्री होता था जो विदेश मंत्री की तरह कार्य करता था ।
इस काल मे छोटे सरदारों की संख्या बढ़ी जिन्हें सामंत या भोगपति कहा जाता था ।
गाँव प्रशासन की बुनियादी इकाई था । इसका प्रशासन मुखिया और लेखाकार द्वारा चला जाता था जो आमतौर पर पुश्तैनी होते थे । उन्हे बुजुर्गों से सहायता मिलती थी जो महाजन या महत्तर कहे जाते थे।
राष्ट्रकूट साम्राज्य मे विधालयों , मंदिरों और सड़कों की देखभाल के लिए ग्राम समितियां होती थी।
शासक
· सभी मामलों का केंद्र था
· प्रशासन का प्रमुख होता था
· सशस्त्र बलों का प्रमुख सेनापति भी होता था
· एक शानदार दरबार लगता था
· पैदल और घुड़सवार सेना को दालान में रखा जाता था
· युद्द में पकड़े गए हथियों व घोड़ों को उसके सामने पेश किया जाता था
· राजकीय सहायक सदैव उसकी सेवा में रहते थे
- सामंतों , सरदारों, राजदूतों को ये ही नियंत्रित करते थे
- अन्य उच्च अधिकारियों पर नजर रखते थे
· राजा ही न्याय करता था
दरबार
· राजनीतिक मामलों व न्याय का केंद्र होता था
· सांस्कृतिक जीवन का भी केंद्र होता था
· नर्तकियाँ व कुशल संगीतकार दरबार में उपस्थित रहते थे
· उत्सव के दौरान राजपरिवार की महिलाएं भी उपस्थित रहती थी
· स्त्रियाँ अपने चेहरे नहीं ढकती थी
राजा का पद पुश्तैनी होता था। राजाओं के बीच और राजा व उनके मातहतों के बीच युद्द होते रहते थे। राजा अपने राज्यों के अंदर कानून व्यवस्था बनाने के प्रयास करते थे पर दूर दराज में उनके आदेश कभी कभार ही लागू होते थे क्योंकि अधीन शासक व स्वायत्त सरदार अकसर राजा के प्रत्यक्ष शासन को सीमित कर देते थे
राजा अक्सर राजाधिराज परमभट्टारक आदि की उपाधि धारण करते थे और चक्रवर्ती (सभी राजाओं में सबसे सर्वोच्च) होने का दावा करते थे
मेधातिथि
एक समकालीन लेखक था। इसके अनुसार अपने आप को चोरो और हत्यारों से बचाने के लिए शस्त्र धारण करना हर एक व्यक्ति का अधिकार था। और अन्यायी राजा का विरोध करना उचित था
उत्तराधिकार संबंधी नियम
ढीले थे और अकसर ज्येष्ट पुत्र ही उत्तराधिकारी होता था । कभी कभी ज्येष्ट पुत्रों को अपने छोटे भाइयों से लड़ना पड़ता था और कभी कभी वे पराजित भी होते थे । जैसे राष्ट्रकूट राजा ध्रुव और गोविंद चतुर्थ ने अपने बड़े भाइयों को सत्ताच्युत किया
कभी कभी राजा ज्येष्ट पुत्र या अपने किसी और प्रिय पुत्र को युवराज घोषित कर देते थे तब युवराज राजधानी में ही रहता और प्रशासन के कामों में सहायता करता ।
कनिष्ठ पुत्रों को कभीकभी प्रान्तों का अधिपति बना दिया जाता था
राजकुमारियों का शासन के पदो पर शायद ही कभी नियुक्त किया जाता हो जैसे एक उदाहरण हैं कि एक राष्ट्रकूट राजकुमारी चंद्रबालाब्बी ने जो अमोघवर्ष की पुत्री थी कुछ समय तक रायचूड दोआब का प्रशासन चलाया
मंत्री
राजा के लिए सलाह के लिए होता था । मंत्रियों का चुनाव राजा मुख्य परिवारों से करता था ।
पद पुश्तैनी होता था । जैसे पाल राजा के समक में एक ही ब्राह्मण परिवार के क्रम से चार सदस्य धर्मपाल और उसके उत्तराधिकारियों के मुख्यमंत्री हुए । तब मुख्यमंत्री बहुत शक्तिशाली बन जाता था
हर राज्य में पत्राचार से जुड़ा एक मंत्री होता था , जो विदेश मंत्री की तरह काम भी करता था
एक राजस्व मंत्री, कोषाध्यक्ष, सेनापति, मुख्य न्यायधीश, और पुरोहित होते थे । एक मंत्री एक से अधिक पद पर हो सकता था
मंत्रियों में एक अग्रणी होता था जिस पर राजा दूसरों से अधिक निर्भर रहता था
पुरोहित को छोड़कर सभी मंत्रियो से यह आशा की जाती थी ये जरूरत पड़ने पर देण्या अभियानों का नेतृत्व करेंगे
राजा सत्ता का स्त्रोत होता था ।
राजपरिवार के कुछ अधिकारी बहुत शक्तिशाली बन जाते थे
सशस्त्र बल
· पाल, प्रतिहार, और राष्ट्रकूट, राजाओं के पास विशाल, सुसंगठित पैदल, और घुड़सवार सेना थी ।
· बड़ी संख्या में जंगी हाथी थे। हाथी शक्ति का आधार होता था
- सबसे बड़ी संख्या पाल राजाओं के पास थी
· घोड़ो का आयात, राष्ट्रकूट व प्रतिहार के समय दोनों ही समुद्र के रास्ते अरब और मध्य एशिया से स्थल के रास्ते खुरासान (पूर्वी फारस) और मध्य एशिया से करते थे ।
- सबसे अच्छी घुड़सवार सेना प्रतिहार राजाओं के पास थी
· युद्द के रथो का प्रचलन नहीं था
· किले बड़ी संख्या में मिलते हैं
- इनमे विशेष दस्ते तैयार रहते थे और अपने अलग कमानदार होते थे
· पैदल सेना में नियमित और अनियमित सैनिक होते थे। नियमित सैनिक पुश्तैनी होते थे और देश के विभिन्न भागों से भी भरती किए जाते थे । पालों की सेना में मलवा, खास (असम), लाट (दक्षिण गुजरात) और कर्नाटक से आए सिपाही होते थे
- मातहत राजाओं के अस्थायी सैनिक होते थे
· नौसेना पाल राजाओं व राष्ट्रकूट राजाओं की थी और इसके अलावा और कोई जानकारी नहीं है
प्रशासित क्षेत्र
· सीधे प्रशासित व अधीन सरदारों द्वारा प्रशासित क्षेत्र भी
· सरदाओं के क्षेत्र अंदरूनी मामले में स्वायत्त होते थे
· सरदार राजा के प्रति निष्ठा रखते थे
- राजा को निर्धारित कर या नजराना देते थे
- निर्धारित संख्या में सैनिक प्रदान करते थे
- सरदार के एक बेटा राजा की सेवा में रहता था ताकि संभावित विद्रोह न हो
- कभी कभी अपनी बेटी का विवाह राजा के बेटे से करना पड़ता था
- लेकिन ये अधीन सरदार हमेशा स्वतंत्र होने का प्रयास करते थे जैसे राष्ट्रकूटों को वेंगी (आंध्रा) व कर्नाटक के सरदारों के खिलाफ लड़ना पड़ता था और प्रतिहारों को मालवा के परमारों से और बुंदेलखंड के चंदेलों के खिलाफ पड़ता था
· पाल और प्रतिहार साम्राज्य में
प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्र भुक्ति (प्रान्तों) में और मण्डल या विषय (जिलों) में विभक्त थे
- प्रांत का अधिपति उपरिक होता था जिससे भू राजस्व जमा करने और सेना की सहायता से कानून व्यवस्था बनाए रखने की आशा की जाती थी
- जनपद का अधिपति विषयपति होता था
· छोटे सरदार सामंत या भोगपति कहा जाता था जिंनका अनेक गाँव पर प्रभुत्व होता था
- विषयपति और इन छोटे सरदारों का आपस में हेर फेर होता था। आगे चलकर दोनों के लिए सामंत शब्द का उपयोग किया जाने लगा
· राष्ट्रकूट साम्राज्य
- प्रत्यक्ष प्रशासित क्षेत्र राष्ट्र (प्रान्तों) में और विषय व भुक्ति में विभक्त थे । विषय आज के जिलों के समान व भुक्ति सबसे छोटी इकाई होती थी ।
- पाल और प्रतिहार साम्राज्य में विषय से छोटी इकाई को पत्तल कहते थे
- राष्ट्र का प्रमुख राष्ट्रपति होता था । इसका पाल और प्रतिहार साम्राज्य के उपरिक के समान कार्यभार था
· सभी अधिकारियों को पारिश्रमिक के रूप में राजस्वमुक्त भूमि दी जाती थी, इससे स्थानीय अधिकारियों तथा पुश्तैनी सरदारों और छोटे मातहत सरदारों का अंतर धुंधला जाता था और कभी एक राष्ट्रपति या प्रांतीय शासक कभी कभी एक अधीनस्थ राजा की स्थिति पा जाता था
· सबसे नीचे गाँव होता था जो प्रशासन की बुनयादी इकाई थी । प्रशासन गाँव के मुखिया और लेखाकार द्वारा किया जाता था। यह एक पुश्तैनी पद होता था। इन्हे राजस्वमुक्त भूमि के रूप में भुगतान किया जाता था
- मुखिया को गाँव के बुजुर्गों से सहायता मिलती थी जिनको ग्राम महाजन या ग्राम महत्तर कहा जाता था
समितियां
· राष्ट्रकूट साम्राज्य में स्थानीय विधालयों, तालाबों, मंदिरों, और सड़कों की देखभाल के लिए ग्राम समिति (जैसे कर्नाटक में) होती थी, इनको ट्रस्ट के रूप में धन संपत्ति का संचय और उसका प्रबंध का अधिकार होता था
- ये उपसमिति मुखिया से घनिष्ठ संबंध बनाकर कार्य करती थी और जमा राजस्व का एक भाग पाती थी
- मामूली विवाद इन समितियों द्वारा तय किए जाते थे
- ऐसी समिति नगर में भी व दस्तकार संघों के प्रमुख इनसे जुड़े होते थे
- नगरों में कानून व्यवस्था कोतवाल या कोष्टपाल का काम होता था
नाद-गवुंड
· ये दक्कन में पुश्तैनी राजस्व अधिकारी होते थे
· ये देश ग्रामकूट भी कहलाते थे
· इनके कार्य बाद में महाराष्ट्र में देशमुख और देशपांडे के जिम्मे आए
· इनकी शक्ति बढ़ने से ग्राम समितियां कमजोर हुई
· इन पर नियंत्रण करना केन्द्रीय शासक के लिए मुश्किल हो गया
· शासन का सामंतीकरण भी इसे कहते हैं
धर्म
· अनेक शासक विष्णु या शिव के निष्ठावान भक्त थे
· कुछ बौद्द और जैन धर्म की शिक्षा में विश्वास करते थे
· ब्राह्मणों या बौद्द विहारों या जैन मंदिरों को बड़े बड़े दान दिये
· सभी धर्मों को संरक्षण दिया
· मुसलमानों को अपने धर्म प्रचार करने की अनुमति दी
· ब्राह्मणों की रक्षा करना और चार वर्णों वाली सामाजिक व्यवस्था को कायम रखना राजा का कर्तव्य था
· पुरोहित राज्य के मामलों में हस्तक्षेप नहीं कर सकता था
· मेधतिथि के अनुसार, राजा की सत्ता का स्त्रोत होता था जो धर्म शास्त्र (जिसमें वेद भी शामिल) और अर्थशास्त्र की सहायता से शासन करता था । सार्वजनिक कर्तव्य अर्थशास्त्र अर्थात राजनीति के सिद्धांतों पर निर्भर होते थे।
- धर्म राजा का निजी कर्तव्य था । राजनीति और धर्म को अलग अलग रखा जाता था
· राजागण प्रतिपादित धार्मिक नियमों के अधीन नहीं होते थे । फिर भी राजा के पद को वैधता व शक्ति प्रदान करके लिए धर्म का महत्व था, इसलिए अनेक राजाओं ने अपनी राजधानियों में अनेक मंदिर बनवाए तथा मंदिरों और ब्राह्मणों के रखरखाव, भरण पोषण के लिए भारी भारी भूमिदान दिये
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