साम्राज्य का संगठन :
विस्तृत प्रशासन तंत्र >> इंडिका (लेखक = मेगास्थनीज) व अर्थशास्त्र (लेखक = कौटिल्य) के अनुसार
कौटिल्य ने राज्य के सप्तांग सिद्दंत के अनुसार सात अंग बताएं है :
1. राज्य
2. राजा
3. मंत्री
4. मित्र
5. कर/कोष
6. सेना और
7. दुर्ग
शासक को परामर्श देने के लिए दो सभाएं थी:
1. मंत्री सभा (सदस्यों की संख्या 3-12 तक)
2. मंत्री परिषद (सदस्यों की संख्या 12, 16 या 20 होती थी)
मंत्रिपरिषद के सदस्यों के चुनाव में उनके चरित्र की भलीभाँति जांच की जाती थी ; जिसे उपधा परीक्षण कहा जाता था।
बड़े बड़े बुद्दिमान लोग परिषद के सदस्य होते थे >> राजा इसकी सलाह मानने का कोई प्रमाण नहीं >> ऊंचे अधिकारियों का चयन इसी मंत्रिपरिषद से होता था
मौर्य प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था। जो संख्या में 18 होते थे।
विभन्न विभागों के प्रमुख को अध्यक्ष कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 26 अध्यक्षों की चर्चा मिलती है।
अध्यक्ष के अधीन युक्त और उपायुक्त नामक कर्मचारी होते थे।
साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था >> हर एक प्रांत एक एक राजकुमार के जिम्मे >> राजकुमार राजवंश की किसी संतान को बनाया जाता था।
प्रान्तों के प्रशासक कुमारामात्य अथवा आर्यपुत्र कहलाता था।
अशोक के समय प्रान्तों की संख्या 5 थी।
कुमारामात्य की सहायता के लिए युक्त, राजुक, प्रादेशिक इत्यादि अधिकारी होते थे।
नगर का प्रशासन एक तीस सदस्यी मण्डल द्वारा किया जाता था, जो 6 समितियों में विभक्त था। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
यूनानी स्त्रोतों से तीन प्रकार के अधिकारियों के विषय में जानकारी मिलती है :
एस्ट्रोनोमोई : नगर का प्रमुख
एग्रोनोमोई : जिले का अधिकारी
सैनिक अधिकारी
मौर्य काल में दीवानी न्यायालय धर्मस्थीय तथा फ़ौजदारी न्यायालय कंटकशोधन कहलाता था।
दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश धर्मस्थ/व्यावहारिक एवं फ़ौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश प्र्देष्टा कहलाता था।
मौर्य काल में गुप्तचरों को गूढ़पुरुष तथा इसके प्रमुख अधिकारी को सर्प महामात्य कहा जाता था।
अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन है-
1. संस्था जो संगठित होकर कार्य करते थे तथा
2. संचार जो घुमक्कड़ थे।
आर्थिक स्थिति
मौर्य काल मुख्यत: कृषि प्रधान था। अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, और वाणिज्या पर आधारित थी। जिन्हें सम्मिलित रूप से वार्ता (वृत्ती का साधन) कहा जाता था। राजकित भूमि को सीता कहा जाता था। राज्य अपने पूर्ण आधिपत्य वाले उधोगों का संचालन खुद करता था।
भूमि पर राज्य और कृषक दोनों का अधिकार होता था। राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाले प्रधान अधिकारी सीताध्यक्ष कहलाता था। इस भूमि पर दासों, कर्मचारियों, और कैदियों द्वारा जुताई-बुआई होती थी। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भू-स्वामी) और उपवास(काश्तकार) में स्पष्ट भेद किया गया है।
मौर्य काल में भूमि पर उपज का 1/4 भाग या 1/6 भाग भू-राजस्व के रूप में वसूला जाता था। सिचाई के लिए अलग से उपज का 1/5 से 1/3 भाग कर के रूप में लिया जाता था।
मौर्य काल में कर राजस्व के प्रमुख स्त्रोत
दुर्ग (नगरों से प्राप्त आय) ,
राष्ट्र ( जनपद ग्रामों से प्राप्त आय),
सेतु ( फल फूल एवं सब्जियों से प्राप्त आय),
ब्रज ( पशुओं से प्राप्त आय),
सीता (राजकीय भूमि से प्राप्त आय),
प्रणय (आपातकालीन कर),
हिरण्य (नकद राजस्व),
उदकभाग (सिंचाई कर),
वर्तनी (सीता कर) तथा
पिण्डकर (पूरे गाँव से कर)
सामाजिक स्थिति
मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है:
1. दार्शनिक
2. किसान
3. अहीर
4. कारीगर
5. शिल्पी
6. सैनिक
7. निरीक्षक
कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। तथा चारों वर्णों के व्यवसाय को निर्धारित किए है।
अर्थशास्त्र में शूद्रो को आर्य कहा गया है तथा मलेच्छों से भिन्न माना गया है।
इस काल में शूद्रों को व्यापक पैमाने पर कृषि कार्य में लगाया गया। कौटिल्य ने 9 प्रकार के दासों की चर्चा की गयी है।
अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकार का उल्लेख है।
मेगस्थनीज के अनुसार भारत में दास प्रथा नहीं थी।
मौर्य समाज का पतन
अशोक के बाद कुणाल शासक बना। जिसे दिव्यवदान में धर्मविवर्धन कहा गया। राजतरंगिणी के अनुसार मगध में कुणाल के शासन के समय कश्मीर का शासक जालौक था।
अशोक के उत्तराधिकारी के रूप में कुणाल, संप्रति, दशरथ, शालिशुक एवं बृहदर्थ का नाम प्राप्त होता है। बृहदर्थ मौर्य वंश का अंतिम शासक था, जिसकी हत्या उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्य मित्र शुंग ने 185 ई पू में कर दी थी।
अर्थशास्त्र के अनुसार राजा का आदर्श उच्च होता था >> प्रजा के सुख में सुखी और दुख में दुखी
Ø प्रांत >>> इकाइयों में विभाजित >> ग्रामांचल व नगरांचल की व्यवस्था
Ø चोटी के नगर = पाटलीपुत्र कौशम्बी, उज्जयिनी, और तक्षशिला
Ø राजधानी = पाटलीपुत्र
Ø विशेषता = विशाल सेना >> प्लिनी नामक यूनानी के अनुसार सेना में 6,00,000 पैदल सैनिक ,30,000 घुड़सवार और 9000 हाथी थे >> 8000 अश्वचलित रथ थे >> नौसेना भी थी
1. राज्य
2. राजा
3. मंत्री
4. मित्र
5. कर/कोष
6. सेना और
7. दुर्ग
शासक को परामर्श देने के लिए दो सभाएं थी:
1. मंत्री सभा (सदस्यों की संख्या 3-12 तक)
2. मंत्री परिषद (सदस्यों की संख्या 12, 16 या 20 होती थी)
मंत्रिपरिषद के सदस्यों के चुनाव में उनके चरित्र की भलीभाँति जांच की जाती थी ; जिसे उपधा परीक्षण कहा जाता था।
बड़े बड़े बुद्दिमान लोग परिषद के सदस्य होते थे >> राजा इसकी सलाह मानने का कोई प्रमाण नहीं >> ऊंचे अधिकारियों का चयन इसी मंत्रिपरिषद से होता था
मौर्य प्रशासन के शीर्ष अधिकारियों को तीर्थ कहा जाता था। जो संख्या में 18 होते थे।
विभन्न विभागों के प्रमुख को अध्यक्ष कहा जाता था। अर्थशास्त्र में 26 अध्यक्षों की चर्चा मिलती है।
अध्यक्ष के अधीन युक्त और उपायुक्त नामक कर्मचारी होते थे।
साम्राज्य अनेक प्रान्तों में विभाजित था >> हर एक प्रांत एक एक राजकुमार के जिम्मे >> राजकुमार राजवंश की किसी संतान को बनाया जाता था।
प्रान्तों के प्रशासक कुमारामात्य अथवा आर्यपुत्र कहलाता था।
अशोक के समय प्रान्तों की संख्या 5 थी।
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मौर्य प्रांतो की राजधानी |
नगर का प्रशासन एक तीस सदस्यी मण्डल द्वारा किया जाता था, जो 6 समितियों में विभक्त था। प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे।
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मौर्य प्रशासन की समितियां |
यूनानी स्त्रोतों से तीन प्रकार के अधिकारियों के विषय में जानकारी मिलती है :
एस्ट्रोनोमोई : नगर का प्रमुख
एग्रोनोमोई : जिले का अधिकारी
सैनिक अधिकारी
मौर्य काल में दीवानी न्यायालय धर्मस्थीय तथा फ़ौजदारी न्यायालय कंटकशोधन कहलाता था।
दीवानी न्यायालय का न्यायाधीश धर्मस्थ/व्यावहारिक एवं फ़ौजदारी न्यायालय का न्यायाधीश प्र्देष्टा कहलाता था।
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मौर्यकालीन न्यायलय/ न्यायधीश |
मौर्य काल में गुप्तचरों को गूढ़पुरुष तथा इसके प्रमुख अधिकारी को सर्प महामात्य कहा जाता था।
अर्थशास्त्र में दो प्रकार के गुप्तचरों का वर्णन है-
1. संस्था जो संगठित होकर कार्य करते थे तथा
2. संचार जो घुमक्कड़ थे।
आर्थिक स्थिति
मौर्य काल मुख्यत: कृषि प्रधान था। अर्थव्यवस्था कृषि, पशुपालन, और वाणिज्या पर आधारित थी। जिन्हें सम्मिलित रूप से वार्ता (वृत्ती का साधन) कहा जाता था। राजकित भूमि को सीता कहा जाता था। राज्य अपने पूर्ण आधिपत्य वाले उधोगों का संचालन खुद करता था।
भूमि पर राज्य और कृषक दोनों का अधिकार होता था। राजकीय भूमि की व्यवस्था करने वाले प्रधान अधिकारी सीताध्यक्ष कहलाता था। इस भूमि पर दासों, कर्मचारियों, और कैदियों द्वारा जुताई-बुआई होती थी। अर्थशास्त्र में क्षेत्रक (भू-स्वामी) और उपवास(काश्तकार) में स्पष्ट भेद किया गया है।
मौर्य काल में भूमि पर उपज का 1/4 भाग या 1/6 भाग भू-राजस्व के रूप में वसूला जाता था। सिचाई के लिए अलग से उपज का 1/5 से 1/3 भाग कर के रूप में लिया जाता था।
मौर्य काल में कर राजस्व के प्रमुख स्त्रोत
दुर्ग (नगरों से प्राप्त आय) ,
राष्ट्र ( जनपद ग्रामों से प्राप्त आय),
सेतु ( फल फूल एवं सब्जियों से प्राप्त आय),
ब्रज ( पशुओं से प्राप्त आय),
सीता (राजकीय भूमि से प्राप्त आय),
प्रणय (आपातकालीन कर),
हिरण्य (नकद राजस्व),
उदकभाग (सिंचाई कर),
वर्तनी (सीता कर) तथा
पिण्डकर (पूरे गाँव से कर)
सामाजिक स्थिति
मेगस्थनीज ने भारतीय समाज को सात जातियों में विभक्त किया है:
1. दार्शनिक
2. किसान
3. अहीर
4. कारीगर
5. शिल्पी
6. सैनिक
7. निरीक्षक
कौटिल्य ने वर्णाश्रम व्यवस्था को सामाजिक संगठन का आधार माना है। तथा चारों वर्णों के व्यवसाय को निर्धारित किए है।
अर्थशास्त्र में शूद्रो को आर्य कहा गया है तथा मलेच्छों से भिन्न माना गया है।
इस काल में शूद्रों को व्यापक पैमाने पर कृषि कार्य में लगाया गया। कौटिल्य ने 9 प्रकार के दासों की चर्चा की गयी है।
अशोक के शिलालेखों में दास और कर्मकार का उल्लेख है।
मेगस्थनीज के अनुसार भारत में दास प्रथा नहीं थी।
मौर्य समाज का पतन
अशोक के बाद कुणाल शासक बना। जिसे दिव्यवदान में धर्मविवर्धन कहा गया। राजतरंगिणी के अनुसार मगध में कुणाल के शासन के समय कश्मीर का शासक जालौक था।
अशोक के उत्तराधिकारी के रूप में कुणाल, संप्रति, दशरथ, शालिशुक एवं बृहदर्थ का नाम प्राप्त होता है। बृहदर्थ मौर्य वंश का अंतिम शासक था, जिसकी हत्या उसके ब्राह्मण सेनापति पुष्य मित्र शुंग ने 185 ई पू में कर दी थी।
Ø साम्राज्य की सीमाओं के भीतर सारे आर्थिक कार्यकलाप पर राजकीय नियंत्रण था
Ø राज्य ने खेतिहरों व शूद्र मजदूरों की सहायता से परती जमीन तोड़कर कृषि क्षेत्र को बढ़ाया
Ø कृषि क्षेत्र बढ़ा >> राज्य की आय बढ़ी >>> राजस्व मिला >> कर उपज के चौथे हिस्से से छठे हिस्से तक
Ø सिचाई सुविधा के लिए सिचाई कर लिया जाता था
Ø आपातकाल में किसानों को अधिक उपजाने के लिए बाध्य किया जाता था
Ø बिक्री के लिए लाये गए माल से प्रवेश द्वार पर चुंगी ली जाती थी
Ø खान, मद्य की बिक्री और हथियारों का निर्माण आदि पर एकाधिकार था
Ø इन सब से राजकोष बढ़ा और वित्तीय आधार प्रदान कर सुसंगठित प्रशासन तंत्र कायम किया
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