'जैन धर्म' का अर्थ है - 'जिन द्वारा प्रवर्तित धर्म'।
जो 'जिन' के अनुयायी हों उन्हें 'जैन' कहते हैं।
'जिन' शब्द बना है 'जि' धातु से।
'जि' माने - जीतना।
'जिन' माने जीतने वाला। जिन्होंने अपने मन को जीत लिया, अपनी वाणी को जीत लिया और अपनी काया को जीत लिया और विशिष्ट ज्ञान को पाकर सर्वज्ञ या पूर्णज्ञान प्राप्त किया उन आप्त पुरुष को जिनेश्वर या 'जिन' कहा जाता है'।
जैन धर्म अर्थात 'जिन' भगवान् का धर्म।
अहिंसा जैन धर्म का मूल सिद्धान्त है।
जैन धर्म मे 24 तीर्थंकरों को माना जाता है। तीर्थंकर धर्म तीर्थ का प्रवर्तन करते है।
क्रमांक | तीर्थंकर |
1 | ऋषभदेव- इन्हें 'आदिनाथ' भी कहा जाता है |
2 | अजितनाथ |
3 | सम्भवनाथ |
4 | अभिनंदन जी |
5 | सुमतिनाथ जी |
6 | पद्ममप्रभु जी |
7 | सुपार्श्वनाथ जी |
8 | चंदाप्रभु जी |
9 | सुविधिनाथ- इन्हें 'पुष्पदन्त' भी कहा जाता है |
10 | शीतलनाथ जी |
11 | श्रेयांसनाथ |
12 | वासुपूज्य जी |
13 | विमलनाथ जी |
14 | अनंतनाथ जी |
15 | धर्मनाथ जी |
16 | शांतिनाथ |
17 | कुंथुनाथ |
18 | अरनाथ जी |
19 | मल्लिनाथ जी |
20 | मुनिसुव्रत जी |
21 | नमिनाथ जी |
22 | अरिष्टनेमि जी - इन्हें 'नेमिनाथ' भी कहा जाता है। जैन मान्यता में ये नारायण श्रीकृष्ण के चचेरे भाई थे। |
23 | पार्श्वनाथ |
24 | वर्धमान महावीर - इन्हें वर्धमान, सन्मति, वीर, अतिवीर भी कहा जाता है। |
जैन धर्म का संस्थापक ऋषभ देव को माना जाता है, जो जैन धर्म के पहले तीर्थंकर थे और भारत के चक्रवर्ती सम्राट भरत के पिता थे।
ऋषभ देव ने 6वी शताब्दी में जैन आंदोलन का प्रवर्तन किया ।
ऋषभदेव (प्रथम तीर्थकर) और अरिष्टनेमि (22वे तीर्थकर) का उल्लेख ऋग्वेद में मिलता हैं ।
पार्श्वनाथ काशी के इक्ष्वाकु वंशीय राजा अग्रसेन के पुत्र थे। पार्श्वनाथ को 30 साल की उम्र में वैराग्य उत्पन्न हुआ, जिस कारण वो गृह त्यागकर संयासी हो गए।
पार्श्वनाथ का काल महावीर से 250 ई पू माना जाता हैं , इनके अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता था
पार्श्वनाथ का काल महावीर से 250 ई पू माना जाता हैं , इनके अनुयायियों को निर्ग्रंथ कहा जाता था
पार्श्वनाथ के द्वारा दी गई शिक्षा थी-
1. सत्य = हमेशा सच बोलना,
2. अहिंसा = हिंसा न करना,
3. अपरिग्रह = संपत्ति न रखना.
4. अस्तेय = चोरी न करना,
पार्श्वनाथ ने नारियों को अपने धर्म में प्रवेश दिया क्योंकि जैन धर्म में स्त्री संघ की अध्यक्षा पुष्पचूला का उल्लेख मिलता हैं ।
पार्श्वनाथ को झारखंड के गिरिडीह जिले में निर्वाण प्राप्त हुआ ।
जैन धर्म के वास्तविक संस्थापक 24 वे एवं अंतिम तीर्थकर महावीर स्वामी थे ।
क्र. म. | बिंदु(Points) | जानकारी (Information) |
1. | नाम(Name) | महावीर |
2. | वास्तविक नाम (Real Name) | वर्धमान |
3. | जन्म(Birth) | 599 ईसा पूर्व |
4. | जन्म स्थान (Birth Place) | कुंडलग्राम |
5. | पत्नी का नाम (Wife Name) | यशोदा |
6. | वंश(Dynasty) | इक्ष्वाकु |
7. | पिता (Father Name) | राजा सिद्धार्थ |
8. | पुत्र(Son) | प्रियदर्शन |
9. | मोक्षप्राप्ति(Death) | 527 ईसा पूर्व |
10. | मोक्षप्राप्ति स्थान(Death Place) | पावापुरी, जिला नालंदा, बिहार |
बचपन में महावीर का नाम 'वर्धमान' था, लेकिन बाल्यकाल से ही यह साहसी, तेजस्वी, ज्ञान पिपासु और अत्यंत बलशाली होने के कारण 'महावीर' कहलाए।
भगवान महावीर ने अपनी इन्द्रियों को जीत लिया था, जिस कारण इन्हें 'जीतेंद्र' भी कहा जाता है।
30 वर्ष की उम्र में अपने ज्येष्ठबंधु की आज्ञा लेकर इन्होंने घर-बार छोड़ दिया और तपस्या करके 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त किया।
महावीर ने पार्श्वनाथ के आरंभ किए तत्वज्ञान को परिमार्जित करके उसे जैन दर्शन का स्थायी आधार प्रदान किया।
महावीर ऐसे धार्मिक नेता थे, जिन्होंने राज्य का या किसी बाहरी शक्ति का सहारा लिए बिना, केवल अपनी श्रद्धा के बल पर जैन धर्म की पुन: प्रतिष्ठा की।
आधुनिक काल में जैन धर्म की व्यापकता और उसके दर्शन का पूरा श्रेय महावीर को दिया जाता है।
महावीर ने अपने जीवन काल में ही एक संघ की स्थापना की जिसमे 11 अनुयायी सम्मिलित थे , ये गणधर कहलाए
जैन धर्म पुनर्जन्म एवं कर्मवाद में विश्वास रखता हैं उनके अनुसार कर्मफल ही जन्म मृत्यु का कारण हैं ।
जैन धर्म में युद्द और कृषि दोनों ही वर्जित हैं क्योंकि दोनों में ही जीवों की हिंसा होती हैं ।
आरंभ में मूर्ति पुजा का प्रचलैन नहीं था किन्तु बाद में महावीर सहित सभी पूर्व तीर्थकरों की पूजा शुरू हो गयी ।
जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है।
तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है -
- अहिंसा - जीव की हिंसा/ हत्या न करना
- सत्य - सदा सत्य बोलना
- अपरिग्रह- संपत्ति इकट्ठा न करना
- अस्तेय - चोरी न करना
- ब्रह्मचर्य - इंद्रियों को वश में करना
जैन धर्म में श्रावक और मुनि दोनों के लिए पाँच व्रत बताए गए है।
तीर्थंकर आदि महापुरुष जिनका पालन करते है, वह महाव्रत कहलाते है -
- अहिंसा - जीव की हिंसा/ हत्या न करना
- सत्य - सदा सत्य बोलना
- अपरिग्रह- संपत्ति इकट्ठा न करना
- अस्तेय - चोरी न करना
- ब्रह्मचर्य - इंद्रियों को वश में करना
इन पाँच व्रतों में पहले चार पार्श्वनाथ ने दिये थे जबकि पांचवा व्रत "ब्रह्मचर्य" महावीर ने जोड़ा ।
तीन गुणव्रत
पांच अणुव्रतों की रक्षा करने के लिए या उनकी वृद्धि के लिए तीन गुणव्रत होते हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्ड व्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत ।
दिग्व्रत -
सूक्ष्म पाप के निराकरण के लिए मरणपर्यंत दशों दिशाओं की मर्यादा करके उसके बाहर नहीं जाना दिग्व्रत है ।
अनर्थदण्डव्रत-
दिशाओं की मर्यादा के भीतर निष्फल पापोपदेश आदि क्रियाओं से विरक्त होना अनर्थदण्डव्रत है ।
भोगोपभोग परिमाण व्रत-
पांच अणुव्रतों की रक्षा करने के लिए या उनकी वृद्धि के लिए तीन गुणव्रत होते हैं-दिग्व्रत, अनर्थदण्ड व्रत और भोगोपभोग परिमाण व्रत ।
दिग्व्रत -
अनर्थदण्डव्रत-
भोग और उपभोग संबंधी वस्तुओं का त्याग करना या कुछ काल के लिए छोड़ना ।
सात शील व्रत
दिग्व्रत- अपनी क्रियाओं को विशेष परिस्थिति में नियंत्रित रखना।
देशव्रत- अपने कार्य कुछ विशिष्ट प्रदेशों तक सीमित रखना।
अनर्थ दण्ड व्रत- बिना कारण अपराध न करना।
सामयिक- चिन्तन के लिए कुछ समय निश्चित करना।
प्रोषधोपवास- मानसिक एवं कायिक शुद्धि के लिए उपवास करना।
उपभोग-प्रतिभोग परिणाम- जीवन में प्रतिदिन काम में आने वाली वस्तुओं व पदार्थों को नियंत्रित करना।
अतिथि संविभाग- अतिथि को भोजन कराने के उपरान्त भोजन करना।
धर्म के दस लक्षण
जैन धर्म में धर्म के दस लक्षण बताए गए हैं। ये इस प्रकार हैं-
उत्तम क्रमा अर्थात् क्रोधहीनता।
उत्तम मार्दव अर्थात् अहंकार का अभाव।
उत्तम मार्जव अर्थात् सरलता एवं कुटिलता का अभाव।
उत्तम सोच अर्थात् सांसारिक बंधनों से आत्मा को परे रखने की सोच।
उत्तम सत्य अर्थात् सत्य से गम्भीर अनुरक्ति।
उत्तम संयम अर्थात् सदा संयमित जीवन यापन।
उत्तम तप अर्थात् जीव को अजीव से मुक्त करने के लिए कठोर तयश्चर्या।
उत्तम अकिचन अर्थात् आत्मा के स्वाभाविक गुणों में आस्था।
उत्तम ब्रह्मचर्य- ब्रह्मचर्य व्रत का कड़ाई से अनुपालन।
उत्तम त्याग अर्थात् त्याग की भावना को सर्वोपरि रखना।
त्रिरत्न
जैन दर्शन का अन्य महत्त्वपूर्ण पक्ष त्रिरत्न की अवधारणा है।
त्रिरत्न के अंतर्गत
1. सम्यक् दर्शन,
2. सम्यक ज्ञान व
3. सम्यक् चरित्र।
जैन धर्म में सम्यक् का अर्थ है सही विश्वास या श्रद्धा से।
ये त्रिरत्न मोह प्राप्ति के साधन हैं।
सम्यक् दर्शन-
यथार्थ ज्ञान को अपनाये जाने की प्रवृत्ति को सम्यक् दर्शन कहा गया। सम्यक् दर्शन से तात्पर्य सात तत्त्वों में विश्वास रखना है जैसे जीव, अजीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निझर एव मोक्ष। जीव-अजीव दो स्वतंत्र तत्त्वों के संयोग से सृष्टि का क्रम चलता है और अनादि विश्व में उत्थान-पतन की प्रक्रिया निरन्तर रहती है। मनुष्य के अन्तिम सत्य के अज्ञान तथा राग (सुख भोगने की आकांक्षा) के फलस्वरूप अपने द्वारा किये गये कर्मों से परमाणुओं के जीव में प्रवेश को आस्रव कहा है। जिस प्रकार विभिन्न स्रोतों से जल एक जलाशय में एकत्र होता रहता है, उसी प्रकार कमों का प्रवेश जीव में होता है। आस्रव के जीव में प्रवेश से जीव बन्धन में पड़कर शरीर धारण करता है एवं आवागमन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है। बन्ध से मुक्ति हेतु दो बातें आवश्यक हैं- प्रथम जीव के नये कमों के प्रवाह को रोकना जिसे संवर कहा है। यह संयम एवं सदाचार से संभव है। पूर्व कर्म के क्षय की प्रक्रिया को निर्झर (निर्जर) की संज्ञा दी गई है जो आत्म अनुशासन तथा कठोर तपस्या से संभव है।
जीव के कम से पूर्णत: मुक्त हो जाने की स्थिति को मोक्ष कहा है, इस अवस्था में जीव अपने मौलिक एवं विशुद्ध रूप को प्राप्त करने में सफल होता है। यह सप्तस्तरीय प्रक्रिया जीव के बंधन से मुक्ति के उपाय को स्पष्ट करती है।
सम्यकज्ञान-
असंदिग्ध एवं दोषरहित ज्ञान को सम्यक् ज्ञान की संज्ञा दी गई। ज्ञान के पाँच प्रकार माने गये हैं। प्रथम् मतिज्ञान जो इन्द्रिय एवं मन द्वारा प्राप्त होता है, यथा नाक से गन्ध का ज्ञान। द्वितीय, श्रुतिज्ञान कान द्वारा सुनने से प्राप्त होता है। तृतीय अवधिज्ञान (या दिव्य ज्ञान) कर्मों के क्षय से जीव में परिष्कार की अवस्था में सूक्ष्म द्रव्यों को जान लेने के सामथ्र्य को कहा गया। चतुर्थ मन-पर्याय से अभिप्राय दूसरों के मन की बात जान लेना है। पंचम केवल ज्ञान से तात्पर्य सब पदार्थों का यथावत् विभिन्न रूपों में सूक्ष्मतम ज्ञान है। इस अवस्था (केवल ज्ञान की) में ज्ञान के बाधक सभी कर्म आत्मा से पूर्णत: अलग हो जाते हैं। यह अनन्त एवं पूर्ण ज्ञान है जो मुक्त जीवों को ही प्राप्त होता है। स्मरणीय है कि केवल ज्ञान की प्राप्ति में भी बाधक तत्त्व कर्म ही होते हैं, जिनके उन्मूलन से ही यह ज्ञान प्राप्त होता है।
सम्यक् चरित्र
से अभिप्राय जिसे सत्य रूप में स्वीकार किया जा चुका हो, उसे चेष्टापूर्वक अभ्यास द्वारा कार्यरूप में परिणत किया जाना चाहिये। दूसरे शब्दों में, अनुचित कार्यों का निषेध एवं हितकर कार्यों का आचरण ही सम्यक् चरित्र है। महावीर द्वारा निर्देशित पंच महावत का पालन भी सम्यक चरित्र में सम्मिलित किया गया है।
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